पहाड़ के लोग और उनकी भूमि – हिमाचल प्रदेश के ऊंचे पहाड़ों में कृषि
नवांग तन्खे द्वारा चित्रण
लाहौल-स्पीति और किन्नौर के कुछ गाँव जो 2500 मीटर की ऊंचाई से ऊपर हैं, पारंपरिक रूप से कृषि पर निर्भर हैं। यहां के वासियों ने पशु पालन के साथ खेती और बागवानी को जीवन यापन के दोहरे स्रोत के रूप में जोड़ा है। यहां जौ, एक ऐसी फसल है जो ठंडे तापमान को सहन कर सकती है और इसकी खेती संभव है। संभवतः लगभग 3,600 साल पहले जौ और कुछ अन्य अनाज की खेती ने उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बसाहट को सुगम बनाया। कृषि भूमि ऐतिहासिक रूप से अर्ध-सामंती व्यवस्था के माध्यम से अधिकार में ली गई थी - वो भी नियुक्ति अधिकारियों द्वारा, जिन्हें कर एकत्र करने की शक्तियां दी गई थीं। सदियों से पारंपरिक फसलें, जौ की किस्मों (कम से कम चार जिन्हें स्थानीय रूप से न्यू, सोआ, नेनक और युमो के रूप में जाना जाता था), से लेकर कुट्टू, एक प्रकार का अनाज (जिसे स्थानीय रूप से ओगला और फाफड़ा या काथू के रूप में जाना जाता है), और काली मटर तक, होती थीं। बागवानी उपज में खुबानी और सेब की किस्में शामिल थीं, खासकर किन्नौर में। हल से खेत जोतने में मदद करने के अलावा, पशुओं से प्रोटीन, डेयरी, ऊन और खाद जैसी कई आवश्यकताओं की पूर्ती भी होती थी। क्षेत्र की दूरी और कम आबादी के कारण खेती में आपसी सहयोग आवश्यक था। सदियों से गाँव में पानी, चारागाह जैसे उपलब्ध सामान्य संसाधनों के प्रबंधन के लिए स्पष्ट नियमों का पालन होता रहा है। अपनी गुज़र-बसर के लिए फसल निकाल कर जो अतिरिक्त शेष होता, उसके व्यापार की व्यवस्था थी। इस तरह के व्यापार में वस्तु विनिमय शामिल था जो काफी हद तक क्षेत्रीय था। लदारचा (स्पीति), कुल्लू और लवी (रामपुर-बुशहर) में आयोजित वार्षिक व्यापार मेलों ने इस तरह के आदान-प्रदान के अवसर प्रदान किए।
1947 में भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद कृषि में बदलाव शुरू हुआ। हिमाचल प्रदेश ने 1953 और 1968 के बीच चार अलग-अलग अधिनियमों के रूप में भूमि सुधार देखे। व्यक्तिगत रूप से स्वामित्व वाली भूमि की मात्रा पर एक सीमा के अलावा, भूमि के स्वामित्व अधिकार उन लोगों को दिए गए जिन्होंने पारंपरिक रूप से पुरानी अर्ध-सामंती व्यवस्था के तहत खेती की थी। भूमिहीनों को खेती के लिए भूमि आवंटित की गई, यह एक ऐतिहासिक सुधार था जिसे नौतोड़ कहा जाता है। भले ही भूमि के स्वामित्व और आवंटन में विसंगतियां थीं, कानून ने यह सुनिश्चित किया कि लगभग हर घर के पास कृषि के लिए भूमि हो। खेती को प्रभावित करने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारक था सहकारी समितियों की स्थापना, जिसका उद्देश्य स्थानीय का मुख्य धारा से दूर होने की स्थिति में बाहरी लोगों द्वारा स्थानीय लोगों का शोषण रोकना।
लाहौल
रोहतांग ला के पार मनाली के उत्तर-पूर्व में स्थित, लाहौल इस क्षेत्र का सबसे दूरस्थ हिस्सा था जो सर्दियों के दौरान कटा रहता था। लाहौल के उद्यमियों ने 1950 के दशक में मनाली में एक अनौपचारिक मुएलटीर्स (खच्चर चलाने वालों का) सोसायटी की स्थापना की, जहां वे सर्दियों में खच्चर किराए पर देने या श्रमिक के रूप में काम करने के लिए आते थे। इस व्यवस्था से वे अपनी दरों को तय करने के लिए स्वतंत्र हुए और शोषण भी रुका। यह बिना किसी औपचारिक समर्थन या हस्तक्षेप के सफलतापूर्वक चला जब तक कि 1967 में रोहतांग ला पर सड़क नहीं बन गई। 1959 में स्थापित कुथ सहकारी विपणन समिति, कुथ की कीमतों को स्थिर करने और नए बाजारों का पता लगाने के लिए मनाली में लाहौलियों द्वारा स्थापित पहली पंजीकृत सहकारी समिति थी। जम्मू-कश्मीर से 1925 के आसपास लाहौल में लाए गए कुथ पौधे की जड़ों का औषधीय महत्व है और यह लंबे समय तक टिकने वाली वस्तु है। उस समय कुथ की खेती का प्रयोग सफल रहा और संभवतः स्थानीय लाहौली किसानों को अपने खेतों के 10%-15% हिस्से में कुथ का रोपण करके पहली बार पर्याप्त वित्तीय लाभ हुआ। हालांकि 1960 के दशक में कुथ की कीमतों में गिरावट शुरू हुई, लेकिन इस सफलता ने वाणिज्यिक फसलों के साथ क्षेत्र के प्रयोगों की शुरुआत कर दी जो आज भी जारी है।
लाहौल में आलू पहली बार 1860 में मोरावियन मिशनरियों द्वारा लाया गया था। स्थानीय जलवायु अनुकूल होने से लाहौल के लोग बे-मौसमी सब्जियों के उत्पादन में सक्षम बने। 1965 में, जैसे ही कुथ की कीमतें गिरनी शुरू हुईं, केलोंग में एक बैठक आयोजित की गई, जहां लाहौल के कुछ प्रमुख किसानों ने पंजाब के वैज्ञानिकों और आलू उत्पादकों के साथ चर्चा की। जालंधर के कुछ आलू उत्पादकों ने किसानों की पूरी पहली फसल, कुथ से बेहतर खरीद दर पर खरीदने का आश्वासन दिया, जिससे किसानों को कुथ से अधिक मुनाफा मिलेगा। सर्दियों में रोहतांग के बंद होने से महीनों पहले आलू की खेती की सारी तैयारी को पूरा किया गया। 1966 में लाहौल से रोग मुक्त आलू बीज की पहली खेप का निर्यात किया गया। 1966 में सिर्फ 20 किसानों के साथ लाहौल आलू सहकारी विपणन समिति (या लाहौल आलू सोसाइटी) का गठन हुआ। किसानों ने जल्द ही महसूस किया कि बाजार को प्रभावित करने के लिए सामूहिक कार्रवाई के बिना आलू की खेती आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं होगी। इस प्रकार लाहौल आलू सोसायटी ने इस क्षेत्र के कृषि और बागवानी उत्पादों की खरीद, भंडारण और विपणन का निश्चय किया। इसने केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, जो 1956 में शिमला में प्रारम्भ हुआ था, के साथ मिलकर काम किया । इन सहयोगों ने समकालीन कृषि तकनीकों और उर्वरकों तक पहुंच का ज्ञान उपलब्ध करवाया। 1970 के दशक के मध्य तक आलू लाहौल की सबसे प्रमुख उपज बन गया और जौ एवं कुट्टू जैसे अनाज उपज में बहुत नीचे खिसक गए। आलू बीज का विपणन गुजरात, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में किया जा रहा था, साथ ही छोटी मात्रा पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका तक भी जा रही थी। 1975 तक सोसाइटी न केवल आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गयी, बल्कि इसने संपत्ति इकट्ठा करना और अन्य सेवाओं में उद्यम करना भी शुरू कर दिया। अपने कार्यकाल के चरम पर, लाहौल आलू सोसायटी अमूल के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी सहकारी संस्था थी।
जब 1979-80 में और फिर 1984-85 में आलू की कीमतें गिरीं, तो सोसाइटी ने राज्य सरकार के साथ उनकी उपज के लिए समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने की पैरवी की। सोसाइटी ने 1973-74 में हॉप्स की खेती को बढ़ावा देने के लिए और बाद में 1984 में हरी मटर की खेती के लिए, विविधीकरण का समर्थन किया। अगले दशक में हरी मटर की खेती में तेजी आई, किसान आलू से हटकर मटर की खेती करने लगे। चूंकि हरी मटर जल्दी खराब हो जाती थी, इसलिए इसके विपणन में सोसायटी की भूमिका केवल संकट की स्थिति में समर्थन मूल्य की पेशकश तक सीमित रही। किसानों ने शुरू में भारी जोखिम उठाकर सीधे बाजारों में अपनी उपज बेची। समय के साथ, निजी खरीदार सामने आये जिन्होंने आकर्षक कीमतों पर खेतों से सीधे हरी मटर खरीदी। इससे लाहौल और आसपास के क्षेत्रों में हरी मटर की खेती का विस्तार हुआ। लाहौली वर्तमान में, फूलगोभी, ब्रोकोली, बैंगनी गोभी और आइसबर्ग (सलाद) जैसी नई बे-मौसमी सब्जियां उगाते हैं जो हरी मटर की तुलना में अधिक लाभदायक हैं और निजी खरीदारों द्वारा भी खरीदी जाती हैं। आलू की खेती अभी भी की जाती है, लेकिन इसका रकबा मामूली है। लाहौल आलू सोसायटी इस क्षेत्र में सक्रिय बनी हुई है और इसने सहमति से तय कीमतों, लागतों और जोखिमों के सिद्धांत पर काम करना जारी रखा है। लगभग 60 वर्षों के अपने कार्यकाल में, सोसाइटी अपने प्रशासन में राजनीतिक प्रभाव को रोकने में कामयाब रही है, इसके प्रबंधन ने लाहौलियों के व्यापक सामूहिक लाभ पर ध्यान केंद्रित किया है। इन वर्षों में, लाहौल में खेती निर्वाह-आधारित आजीविका से एक आकर्षक नकदी-फसल आधारित व्यवसाय में बदल गई।
लाहौल में जैविक रूप से उगाया गया आइसबर्ग लेट्यूस;
तस्वीर: ताशी अंगरूप
किन्नौर
किन्नौर के भीतर हम विशेष रूप से हंगरंग घाटी पर ध्यान केंद्रित करेंगे जो 2500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर ऊपरी किन्नौर में पड़ती है। स्पीति नदी और सतलुज के संगम के पास स्थित, इस क्षेत्र में खेती को इसकी सुदूरता के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। निर्वाह आधारित खेती और पशुपालन इस क्षेत्र में आजीविका के मुख्य आधार थे, साथ ही शिपकी ला के रास्ते से तिब्बत के साथ सक्रिय व्यापार भी था। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद सीमा पर बुनियादी ढांचे का विकास हुआ, जिसने स्थानीय लोगों के पारंपरिक रूप से तिब्बत के साथ व्यापार संबंधों को प्रभावित किया।
सेब की बागवानी को पहली बार 1916 के आसपास हिमाचल प्रदेश में शुरू किया गया था और जल्द ही इन क्षेत्रों को बागवानी के विकास की पहल के रूप में पहचान मिली। किन्नौरों को सेब, चेरी, खुबानी, नाशपाती, बादाम और अखरोट जैसे शीतोष्ण फल उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। किन्नौर में आलू की खेती भी हुई, 1962 में सोसायटी का पंजीकरण किया गया और फिर 1981 में ऊपरी किन्नौर की सोसायटी का भी पंजीकरण किया गया, लेकिन इसकी खेती हमेशा मामूली रही। ऊपरी किन्नौर का नकदी फसल के रूप में हरी मटर की ओर झुकाव हुआ और 1980 के दशक के अंत तक आते-आते इसका उत्पादन बढ़ने लगा। इस प्रकार 1980 के दशक के अंत से किन्नौर की अर्थव्यवस्था नकदी-फसल आधारित अर्थव्यवस्था के रूप में आकार लेने लगी।
हिमाचल प्रदेश के सेब; विकिमीडिया कॉमन्स
1988 में, किन्नौर में लगभग 70% खेती योग्य भूमि अभी भी पारंपरिक फसलों जैसे कि कुट्टू और जौ के अधीन थी, और हरी मटर नकदी प्रदान करती थी। पहाड़ी ढलानों पर सेब का कब्जा होने लगा था, जिसे बाजार का हिस्सा बनने में 15 साल तक का समय लगा। 1990 के दशक के मध्य तक, सेब आजीविका का एक प्रमुख स्रोत बन गया। सेब को अपनाने के साथ, बाग प्रबंधन की नई तकनीकें और सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों की शुरूआत हुई। आज, हरी मटर की खेती कई क्षेत्रों में प्रतिबंधित है क्योंकि सेब के बागान तेजी से उनकी जगह ले रहे हैं। ऊपरी किन्नौर में खेती लगभग पूरी तरह से बागवानी में बदल गई है, जिसके चलते सेब उत्पादन के तहत लाई जा सकने वाली भूमि की मांग बढ़ रही है। सेब उत्पादन में यह उछाल तापमान के गर्म होने के कारण है, जिसके कारण सेब के बागान इन ठंडे और शुष्क पहाड़ी क्षेत्र में पलायन करते दिख रहे हैं। यह एक दुर्लभ उदाहरण है कि कैसे बदलती जलवायु ने समुदाय के लिए अवसर पैदा किए हैं, जबकि कई कमजोरियां भी पैदा की हैं।
किन्नौर की पहाड़ी ढलानों पर सेब के बगीचे; विकिमीडिया कॉमन्स
स्पीति
लाहौल और किन्नौर के बीच स्थित, स्पीति शायद इस क्षेत्र का सबसे ऊंचा और ठंडा हिस्सा है। हालांकि तकनीकी रूप से स्पीति का मार्ग सर्दियों में सुलभ रहता है, यह किसी भी बड़े शहर से स्थित सबसे दूर का क्षेत्र है। यह इस तथ्य से भी साबित होता है कि स्पीति भी हालाँकि निर्वाह फसलों से नकदी फसलों की ओर बढ़ रहा है, यह बदलाव बहुत धीमा है।
इस घाटी की दो प्रमुख फसलें जौ और काली मटर थीं। स्पीति ने भी आलू के साथ प्रयोग किया और 1977 में एक सोसायटी की स्थापना भी की, लेकिन स्पीति में आलू का उत्पादन लाहौल के जैसा नहीं हुआ। स्पीति के कई किसानों ने महसूस किया कि आलू और जौ की फसल, जो निर्वाह के लिए एक आवश्यक फसल थी, का समय एक होने से संभावित फल नहीं मिला। स्पीति ने अंततः हरी मटर के साथ प्रयोग करना शुरू किया, और 1990 के दशक में स्पीति के किसानों ने अपनी उपज की बिक्री के लिए दिल्ली की यात्रा की। वर्ष 2000 के दशक से निजी खरीदारों ने सीधे खेतों से उपज खरीदना शुरू कर दिया और इस से हरी मटर का उत्पादन काफी बढ़ गया । 1990 के आसपास, जौ को कृषि योग्य भूमि के 55% हिस्से पर बोया गया था, जबकि मटर ने लगभग 30% पर कब्जा कर लिया था। 2009 तक जौ का रकबा 43% तक गिर गया था और मुख्य रूप से काली मटर, गेहूं, मसूर दाल, राजमा और सरसों जैसी अन्य सीमांत फसलें, जिनकी खेती व्यक्तिगत उपभोग के लिए की जाती थी, में कमी होकर हरी मटर की खेती 51% तक बढ़ गई थी। आज हरी मटर की खेती 75% से अधिक खेतों में की जा रही है, और अधिकांश स्थानीय लोग सिर्फ घरेलू मांग को पूरा करने की खातिर कभी कभार कुछ वर्षों के अंतराल में जौ की खेती करते हैं। किन्नौर के निकटवर्ती गांवों में सेब की सफलता ने किसानों को इस उम्मीद में सेब की खेती के साथ प्रयोग शुरू करने के लिए उत्साहित किया है कि सेब के बगीचे अंततः किन्नौर से और आगे भी बढ़ सकते हैं। 2023 में, ‘की’ गांव के कुछ किसान लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई पर सेब उगाने के प्रयास में सफल रहे, जिससे उम्मीदें और बढ़ गई हैं।
जबकि स्पीति नकदी फसलों को अपनाने में लाहौल और किन्नौर का अनुसरण कर रहा है, फिर भी एक पहलू है जिसमें यह अभी भी पारंपरिक है। जबकि लाहौल और किन्नौर ने सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को अपनाया है, स्पीति ने इसके प्रयोग का काफी विरोध किया है। पशु पालन में घटती रुचि ने लाहौल और किन्नौर के किसानों के लिए खाद के विकल्प कम छोड़े हैं, जबकि स्पीति में पशु पालन अभी भी जारी है और यहां के अधिकांश किसान सिंथेटिक खाद के इस्तेमाल को लेकर संदेह का भाव रखते हैं। किसान लद्दाख के चांगथांग तक से जैविक पशुधन खाद और मैदानी इलाकों से पोल्ट्री खाद भी खरीद रहे हैं।
की गांव में मटर की फसल; प्रसेनजीत यादव
कृषि - निरंतर परिवर्तन की कहानी
हिमाचल प्रदेश के ऊंचे पहाड़ों में कृषि का लगातार विकास हुआ है। पहुंच और रास्तों में सुधार से किसानों के लिए अपनी उपज को बाजार तक ले जाना सुगम हो गया है। पिछले कुछ वर्षों में कनेक्टिविटी में सुधार के साथ, किसानों ने जल्दी खराब होने वाली नकदी फसलों को उगाने का जोखिम उठाया है। कभी-कभी ये जोखिम बड़े नुकसान भी लाते हैं, जैसा कि सं. 2023 में हुआ जब मौसम की अप्रत्याशित घटनाओं के कारण परिवहन को प्रभावित करने वाले बुनियादी ढांचे को व्यापक नुकसान पहुंचा था। हालांकि, सामान्य वर्षों में वित्तीय रिटर्न आकर्षक हो सकता है। प्रौद्योगिकी के आगमन ने स्थानीय रूप से प्रासंगिक तकनीकी समाधानों को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित किया है। किसान फसल में विविधता ला रहे हैं और प्रयोगों के लिए तैयार हैं, जिससे उन्हें वित्तीय लाभ मिल रहा है। उन्होंने सहकारी समितियों और निजी खरीदारों को अपनी उपज बेचने के बीच संतुलन बनाया है। बढ़ती आय ने उनकी आकांक्षाओं को व्यापक बना दिया है, युवा पीढ़ी को बेहतर शिक्षा और अधिक प्रदर्शन के अवसर मिल रहे हैं। नकदी तक पहुंच ने किसानों के लिए श्रम को किराए पर लेना संभव किया है, जो पहले नहीं था। लाहौल के कई हिस्से अब अनुबंध खेती के विभिन्न रूपों के साथ प्रयोग कर रहे हैं जहां लाभ को भूस्वामी और श्रमिक, जो उनका प्रबंधन करते हैं, के बीच साझा किया जाता है। दूरस्थता ने लाहौल-स्पीति और किन्नौर के किसानों के बीच परस्परता स्थापित की है। मुट्ठी भर किसानों द्वारा नकदी फसलों के साथ शुरुआती प्रयोगों की सफलता ने पूरे क्षेत्र के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। स्थानीय लोगों को बाजार से अपनी दूरस्थता के जोखिमों के बारे में पता था, और उन्होंने संस्थानों की स्थापना करके इस चुनौती का मुकाबला किया जो जोखिम और पुरस्कार दोनों के लिए व्यवस्था करते थे। इस प्रक्रिया में, पारंपरिक फसलों की खेती में गिरावट आई है और अब इनकी खेती बहुत छोटे क्षेत्र तक सीमित हो गयी है।
कई अन्य हिमालयी क्षेत्र, जहां कृषि में गंभीर गिरावट आयी है, के विपरीत इस क्षेत्र में कृषि ने अपना महत्व बरकरार रखा है। क्षेत्र के लगभग सभी परिवार कृषि में शामिल हैं जिनकी आय का यह एक प्रमुख स्रोत है। इसके साथ ही भूमि सुधारों के कारण लगभग सभी परिवारों के पास भूमि का कुछ हिस्सा होने से, लगभग हर परिवार को आर्थिक रूप से लाभ हुआ है, भले ही लाभ भूमि जोत के आकार के साथ भिन्न हो सकते हैं। यह इस तथ्य को दर्शाता है कि किन्नौर और लाहौल-स्पीति जिले हिमाचल प्रदेश के जिलों में प्रति व्यक्ति आय के मामले में दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। और देश की औसत प्रति व्यक्ति आय से काफी ऊपर है। नौतोड़ नियमों के विस्तार के माध्यम से अधिक भूमि को खेती के तहत लाने की निरंतर मांग की जा रही है। इस व्यावसायिक सफलता में एक बड़ा हाथ स्थानीय जलवायु का है जिसके कारण यह संभव हुआ है और जिसने इन क्षेत्रों में ऐसी बे-मौसमी उपज की आपूर्ति को सुगम बनाया है जो कि उच्च गुणवत्ता प्राप्त हैं। लेकिन मौसम में बढ़ती अनिश्चितता के साथ, किसानों और खेती को अधिक जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। अभी के लिए लोगों का अपनी भूमि के साथ संबंध मजबूत बना हुआ है।
लेखक का परिचय
लाहौल, स्पीति और ऊपरी किन्नौर के निम्नलिखित किसानों ने मुख्य रूप से अपने विचार व्यक्त किए:
चांगो के अंगाइल
गुमरंग के छेरिंग गाजी और रिनचेन अंगमो
की के दावा बुथित और गेला फुंत्सोग
किब्बर के दोरजे चंगेज़
पिन घाटी में संगनम के दोरजे ज़ांग्पो और पद्मा अंगचुक
गुमरंग के दोरजे छेरिंग
हांगो के पेमा ग्यात्सो और छेरिंग
की के तोमदन