top of page

हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों की दिशा

Climate destruction_Nawang Tankhe.PNG

नवांग तन्खे द्वारा चित्रण

विशाल हिमालय का हृदय जलवायु परिवर्तन से निरंतर हो रहे बदलावों का साक्षी बन रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप के मौसम के निर्धारण में हिमालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पश्चिमी हिमालय क्षेत्र, जिसमें जम्मू कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड सम्मिलित हैं, का जटिल भूगोल कई स्थानीय गर्म और ठंडे क्षेत्रों से मिलकर बना है। इसलिये यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न है।

जलवायु परिवर्तन का अर्थ स्थानीय स्तर पर मौसम की प्रवृत्तियों में आने वाले उन दीर्घकालिक बदलावों से है जो पृथ्वी की स्थानीय, क्षेत्रीय और भूमंडलीय जलवायु को प्रभावित करते हैं। हम में से अधिकांश जानते हैं कि सर्दियों में सब्ज़ियां उगाने के लिए सामान्यतः ग्रीन हाउस का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इन का तापमान बाहर के तापमान की तुलना में गर्म रहता है। एक ग्रीन हाउस यथासंभव अधिकाधिक प्रकाश को अपने अंदर प्रवेश दे कर और उसे तापीय ऊर्जा के रूप में कैद कर के खुद को गर्म रखता है। अब कल्पना कीजिए कि यदि हमारा ग्रह भी ग्रीन हाउस की तरह से व्यवहार करे तो क्या हो? वास्तव में यह एक बड़े ग्रीन हाउस की तरह ही व्यवहार करता है, तभी हमारे ग्रह पर जीवन के विविध रूप विध्यमान हैं। यह घटना ग्रीन हाउस प्रभाव कहलाती है। परन्तु पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जीवाश्म इंधनो के प्रयोग में हुई अत्यधिक वृद्धि ने वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा को बहुत अधिक बढ़ा दिया है जिससे तापमान और मौसम से जुड़ी अनदेखी घटनाएं बढ़ गई हैं।

हिमालय की बदलती जलवायु के बारे में विभिन्न शोध के परिणाम एक निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र ने ऋतुओं के अधिकतम और न्यूनतम, दोनों ही तरह के तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी है। दिन और रात के तापमान का अंतर् भी बढ़ रहा है जो एक गर्म होती जलवायु की और संकेत करता है। हिमपात की तीव्रता और अवधि में भी बहुत विचलन दिखता है। वैज्ञानिकों ने शुरूआती दिसंबर जनवरी में होने वाले हिमपात में कमी देखी है, जबकि फरवरी और मार्च में यह बढ़ गया है। हालांकि वर्षा की तीव्रता तुलनात्मक रूप से अपरिवर्तित रही है, पर इसकी अवधि में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। मानसूनी वर्षा जो पहले अगस्त के मध्य तक सीमित थी, अब बादल फटने की बढ़ती घटनाओ के साथ, अपनी अवधि के बाद भी टिकी रहती है। यह परिवर्तन और हिमपात में देरी, दोनों मिल कर संपूर्ण क्षेत्र में वर्षा और बादलों के वितरण को बदलते हैं।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कोरा विचार भर नहीं है, बल्कि एक कटु सच्चाई है जो विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। कृषि, जो इस क्षेत्र के बहुसंख्यक लोगों की जीवन रेखा है, विशेष रूप से संकट में है। देरी से हो रहे हिमपात ने हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी के सेब के बागानों पर अपनी कुदृष्टि डाल दी है। बदलती ठंड के कारण सेब की फसल का फलना-फूलना और उसकी कुल उपज बुरी तरह से प्रभावित हुई है। कम ऊंचाई पर फलने-फूलने वाले बगीचों को अब अधिक ऊंचाई पर शरण लेनी पड़ रही है। इससे न केवल भौगोलिक दृश्यावली बल्कि उत्पाद की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है।

 

पश्चिमी लद्दाख में खुबानी और अखरोट जैसी बागवानी फसलें कठिन चुनौतियों का सामना कर रही हैं। वसंत ऋतु पहले से ठंडी हो गई है जिससे फल लगने की प्रक्रिया धीमी हो गई है और फसल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। स्थानीय तौर पर उगाई जाने वाली जौ की फसल की उपज में भी काफी कमी आई है जो जलवायु परिवर्तन से कृषि में संघर्ष की पुष्टि करती है। 

स्पीति के ग्रामीण हरी मटर की फसल के गिरते उत्पादन की मार्मिक कहानी सुनाते हैं, जो उनकी आमदनी का महत्वपूर्ण स्रोत है। 2022 में लांग्ज़ा गांव में पानी की कमी से नष्ट हुई पूरी फसल पानी की अनुपलब्धता से पैदा हुई समस्या की चरम परिणति थी। यह समस्या केवल खेतों तक सीमित नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण क्षेत्र की पहचान पर संकट के रूप में उभर रही है।

उत्तराखंड में कृषि, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है, उत्पादन के क्षेत्र में बहुत परिवर्तन देख रही है। इससे फसल उत्पादन में बदलाव, विविधता में कमी, और कीटों के हमले में वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन से पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी जैसे जिलों में पारम्परिक लघु वनोत्पादों के संग्रह के समय में बदलाव हुआ है, जिससे लोगों की आजीविका प्रभावित हुई है। 

An_aerial_view_of_flood-ravaged_Rudraprayag,_in_Uttarakhand.jpg

उत्तराखंड में बाढ़ से तबाह रुद्रप्रयाग का हवाई दृश्य; विकिमीडिया कॉमन्स

किसान, भूमि के संरक्षक, इस परिवर्तन की पुष्टि करते हैं। 

पहले जुलाई और अगस्त के महीने में हमें तारे नहीं दिखते थे। मानसून में कई दिनों तक लगातार होने वाली वर्षा, भूमि और फसल के लिए बहुत अच्छी होती थी। पर अब अचानक और असमय होने वाली मूसलाधार वर्षा मिट्टी और फसल दोनों को खराब कर रही है। बारिश ने हमे पूरी तरह से निराश कर दिया है।

 

उत्तराखंड के एक किसान के विचार।

 

गर्मिया अब पहले से बहुत तेज़ और शुष्क होती हैं, जिससे फसल शुरूआती चरण में बिना दानों का विकास हुए ही पक जाती है। 

उत्तराखंड के एक अनुभवी किसान के विचार।

 

पहले बर्फ लगभग एक फुट तक ऊँची होती थी और हफ़्तों टिकती थी पर अब अगर बर्फ गिरती भी है तो पांच इंच से ज्यादा नहीं और वो भी एक दिन में पिघल जाती है।

हिमाचल प्रदेश के एक किसान का विचार।

 

हर साल हम ग्लेशियर को पार करके ज़ांस्कर से किश्तवाड़ जाते हैं। पिछले वर्षों में ग्लेशियर लगातार घटता जा रहा है। उसको टिकाए रखने लायक नई बर्फ नहीं गिर रही, जिससे हमारे प्रवास के पारम्परिक रास्ते पर संकट उत्पन्न हो गया है।

लद्दाख के एक चरवाहे का विचार।

इस क्षेत्र में बदलती मौसमी पृवत्तियों का गहरा प्रभाव पहाड़ी समुदायों पर बढ़ते खतरे के रूप में दिख रहा है। महत्वपूर्ण आधारभूत संरचना के चरम मौसम से हुए विनाश ने इस त्रासदी को और बढ़ा दिया है। क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों का साक्षी है और बहुत सारी दुखद घटनाएं गंभीर चेतावनी दे रही हैं। 2023 के मानसून में दर्ज रिकॉर्ड तोड़ वर्षा, अचानक आई बाढ़, भूस्खलन के मामले और 2024 की सर्दियों के हिमपात विहीन रहने का मंडराता खतरा क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की दुखद तस्वीर है। बोहनी और कटाई के समय में लचीलापन लाकर, नई फसलों के साथ प्रयोग कर के और नवीन तकनीक उपायों को अपनाकर किसान इससे निबटने का प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के बाद भी पहाड़ी समुदाय तेजी से बदलते जलवायु के खतरों के साथ अपने अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहा है।

 

लेखक का परिचय

IMG_9217.HEIC

अक्षता आनंद

 

अक्षता आनंद ने भारती विद्यापीठ इंस्टिट्यूट ऑफ़ एनवायरंमेंट एजुकेशन एंड रिसर्च, पुणे से परास्नातक पूर्ण किया है। वे स्पीति घाटी और हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन के पारंपरिक और नगदी फसलों पर पड़ रहे निरंतर प्रभाव की जांच में जुटीं हैं। वर्तमान में वे हिमाचल प्रदेश में नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन के साथ समुदाय आधारित संरक्षण पर काम कर रही हैं।

bottom of page