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दार्से: तीरंदाज़ी उत्सव

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नवांग तन्खे (काज़ा) की कलाकृति

तीरंदाज़ी पीढ़ियों से लद्दाखी संस्कृति का एक जीवंत हिस्सा रही है। इसकी उत्पति पारम्परिक शिकार से हुई है। प्रागैतिहासिक काल में युद्ध के दौरान और आजीविका के साधन के लिए इसका अभ्यास किया जाता था लेकिन धीरे-धीरे सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों में बदलाव के साथ, लोगों के दैनिक अभ्यास में तीरंदाज़ी का उपयोग कम हो गया है। हालांकी आज भी यह लद्दाखी संस्कृति और रितिरिवाजों में एक महत्वपूर्ण हिस्सा रखती है। पारम्परिक धनुष और तीर से तीरंदाज़ी करना शायद अतीत के बहुत कम देखे जाने वाले सांस्कृतिक अवशेषों में से एक है और समृद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है।

कई लद्दाखी लोक कहानियों, कहावतों, साहित्य और शैल-कला में तीरंदाज़ी का उल्लेख है, जो पारम्परिक जीवन शैली में आकर्षक अंतर्दृष्टि देता है। मौखिक लोकगीत - राजा गेसर का महाकाव्य (केसर-ए-ग्रमस) योद्धा राजा लिंग गेसर की वीर गाथाएँ सुनाता है जो एक कुशल धनुर्धर और घुड़सवार थे। इस महाकाव्य में हथियार और कवच बनाने की कला का विस्तृत विवरण है।

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फोटो साभार: अभिजीत दत्ता, गया में तीरंदाज़ी, उत्सव

राजा गेसर का महाकाव्य मध्य एशियाई क्षेत्र की सबसे प्रसिद्ध मौखिक कथा है और तिब्बती पठार और लद्दाख़ के पहाड़ी इलाक़ों में इसका प्रभाव काफी ज़्यादा है। “लिंग की तरह तेज” जैसे वाक्यांश - लिंग गेसर ग्यालपो की विशाल शक्ति और गति स्थानीय भाषा का एक सामान्य हिस्सा है। इस महाकाव्य में प्राकृतिक तत्वों और प्रकृति की कल्पना की ओर संकेत भी अक्सर किया गया है। मौखिक कथा- प्रकृति में सद्भाव, मानव और प्रकृति के बीच संतुलन, अच्छाई और बुराई(देवता व दानव) के बीच व प्राकृतिक व्यवस्था में अड़चन की गहरायी से पड़ताल करती है। वर्तमान समय में अधिकतर मौखिक कथा और संस्कृतिया प्रचलन से बाहर होती जा रही है और जो कुछ भी बचा है वह हमारे पूर्वजों द्वारा दी गयी सांस्कृतिक विरासत का लघु संस्करण है।

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फोटो साभार: कर्मा सोनम

तीरंदाज़ी, कुछ बची हुई परंपराओं में से एक, लद्दाख़ में सबसे अधिक मनाया जाने वाला त्योहार है और यह मेरे गाँव-ग्या में भी बहुत लोकप्रिय है। गया, लद्दाख़ की सबसे पुरानी बस्तियों में से एक है, और ऐतिहासिक रूप से प्रमुख शासक ग्या-पा-चाउ का निवास स्थान रह चूका है। वर्तमान में, यहाँ लगभग १५० परिवार हैं जो कृषि-पशु चारण पर निर्भर है। दाह-फ़ैंग या दार्से (तीरंदाज़ी उत्सव) अच्छी फसल, सद्भाव व ख़ुशियों के लिए मनाया जाता है। पारम्परिक गीत और नृत्य, दावतें, तीरंदाज़ी प्रतियोगिता, अनुष्ठान ये सभी उत्सव और प्रार्थनाओं का हिस्सा है।

दार्से वर्ष में दो बार मनाया जाता है; स्पित्दा वसंत ऋतु के शुरुआत में मनाया जाता है और यर्ड़ा गर्मियों के मध्य का उत्सव है। किसान जब खेती के लिए तैयार हो रहे होते हैं तो खेतों को पानी देने से ठीक पहले वसंत तीरंदाज़ी उत्सव मनाया जाता है। गोबा-सभी पड़ोसी बस्तियों के ग्राम प्रधान सामूहिक रूप से खेती की शुभ तिथि के लिए रोंगस्टेन (देवज्ञ) से परामर्श करते हैं। एक बार जुतायी की तिथि तय हो जाने के बाद गोबा त्योहार के तारीख़ की घोषणा करते हैं और दावत के लिए जौ, अनाज और रा-लुक (भेड़-बकरी ) एकत्रित करते हैं।

महिलायें और युवतियाँ पूरे गाँव के लिए भोजन तैयार करने में भाग लेती हैं जबकि पुरुष और किशोर लड़के तीरंदाज़ी प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। पारम्परिक शराब पीना उत्सव का एक बड़ा हिस्सा है और चगमा (शराब प्रभारी) महिलाओं का एक समूह जो चांग (जौ की शराब) और आर्क (स्थानीय शराब) को बनाने और त्योहार के दौरान तीरंदाज़ो को परोसने के लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार होता है। ग्या में ३ मुख्य समुदाय हैं जिनके साथ दार्से सामूहिक रूप से मनाया जाता है। यह ६ दिनों तक निरंतर चलता है और प्रत्येक गाँव बारी-बारी से मेजबानी करता है। हेमया (मेरी माँ का गाँव) में अच्छी फसल के लिए धार्मिक समारोह और ग्रामीणों के बीच शांति और सद्भाव के लिए प्रार्थना पवित्र लामाओं द्वारा की जाती है और “फुट” (भगवान को पहली भेंट) को कहे जाने वाले अनाज के ढेरों को मठों में कृतज्ञता भाव से भेज दिया जाता है।​

तीरंदाज़ी प्रतियोगिता त्योहारों की सबसे बहुप्रतिक्षित स्पर्धाओं में से एक है और बहुत सारे पुरुष और युवा लड़के इसमें भाग लेते है। तीरंदाजों को दो दलों में बाँटा जाता है जो माँ-भू (माँ - माता, भू - पुत्र) नाम से जाने जाते हैं, जिसमें एक दल गोबा (गाँव के मुखिया) के नेतृत्व में और दूसरा दल नएरपा (साधु प्रतिनिधि) के नेतृत्व में होता है। पहले के समय में तीर और धनुष कुशल कारीगर आइबेक्स (जंगली बकरी) के सींग से बनाते थे लेकिन इन दिनों हम विलो और बांस से बने हुए तीर धनुष का उपयोग करते हैं। लक्ष्य क्षेत्र मिट्टी के ढेर पर बनाया जाता है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके की तीर टूट ना जाए और लक्ष्य जिसे त्सगे के नाम से जानते हैं वो या तो जमा (भूमि की गीली मिट्टी) से या लकड़ी के तख़्त से बना होता है। तीरंदाज़ी प्रतियोगिता की शुरुआत रदमन पा(पारम्परिक संगीतकार) के संगीत से शुरू होती है। और जब तीरंदाज़ अपने त्सेगे(लक्ष्य) पर तीर मारते हैं तब लोग ज़ोर ज़ोर से गाना गाते हैं और दल को उत्साहित करते हुए नाचते हैं। जो दल लक्ष्य को जितनी ज़्यादा बार भेद पाता है वो दल विजयी होता है।

विजयी दल रदमन पा को उनकी सेवाओं के लिए कृतज्ञता भाव जताते हुए कुछ धनराशि देता है और त्सगे (लक्ष्य क्षेत्र) के चारों ओर जोरो सोरो से "रजंग सोलो" चिल्लाते हुए परिक्रमा करता है। तीरंदाजी केवल एक खेल टूर्नामेंट नहीं है बल्कि हमारी सांप्रदायिक पहचान और सांस्कृतिक लोकाचार का एक अभिन्न अंग है। यह समृद्ध लद्दाखी सांस्कृतिक विरासत का प्रतिबिम्ब है जो लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक भावनाओं को संजोए रखे है। त्योहार समुदायों को एक साथ लाता है और समाज के भीतर सामंजस्य और शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। लद्दाख मुख्य रूप से एक कृषि-पशुपालक समाज है, यह उत्सव एक तरह से भूमि पर उगायी जानें वाली फ़सलो का और किसानो के प्रयासों के नमन का भी है।

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फोटो साभार: कर्मा सोनम

लेकिन इस तरह की पारंपरिक प्रथाएं धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं और त्योहार के कई पहलुओं और पारंपरिक रीति-रिवाजों को आधुनिकता के अनुरूप बदला जा है। जैसे पारंपरिक कपड़े-गोंचा (ऊनी वस्त्र) पहनना, पाबा खाना (जौ से बना आहार) और स्थानीय कारीगरों द्वारा हस्तनिर्मित धनुष और तीर का उपयोग करना तीरंदाजी उत्सव के महत्वपूर्ण पहलू थे लेकिन धीरे-धीरे यह कम हो रहा है। इन दिनों आधुनिक खेल सामग्री का उपयोग तीरंदाजी के लिए किया जाता है और लोगों व समुदायों के बीच सद्भाव की भावना, को धीरे-धीरे खेल की प्रतिस्पर्धा द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है। मैंने व्यक्तिगत रूप से पिछले कुछ वर्षों में इन पारंपरिक प्रथाओं (चाहे खेती या तीरंदाजी) में भारी बदलाव देखा है और मुझे भारी नुक़सान की अनुभूति होती है। हमारी भूमि और हमारी प्रथाएं हम कौन है ये ब्यान करती हैं और मुझे लगता है कि इन पारंपरिक प्रथाओं को संरक्षित करना महत्वपूर्ण है।

लेखक के बारे में

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कर्मा सोनम

कर्मा सोनम लद्दाख के पूर्वी हिस्से में रुम्पसे के सुदूर गांव से हैं। एक विनम्र कृषि-देहाती परिवार में जन्मे, उन्हें याद है कि वे कैसे पशुधन के आसपास बड़े हुए थे और अपने गांव के आसपास के चरागाहों में उन्हें चराने की जिम्मेदारी लेते थे। उन्हें प्राकृतिक दुनिया का शौक़ है और पक्षी विहार करना पसंद है। वह पिछले १५ वर्षों से एन.सी.एफ के साथ काम कर रहे हैं और पूर्वी लद्दाख के लिए रोंग और चांगथांग क्षेत्रों में समुदाय-आधारित संरक्षण प्रयासों को जुटाने/संगठित करने में मदद कर रहे हैं।

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