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उत्तराखंड में कृषि

Terrace fields amidst Himalayan ranges near Rishikesh_Wikimedia Commons.jpg

पीयूष शेखसरिया द्वारा चित्रण

सोवा - रिग्पा, जिसे आमची चिकित्सा पद्धति भी कहते हैं, ऊँचे हिमालयी क्षेत्र में प्रचलित है। इसे तिब्बती औषधि प्रणाली के रूप में भी जाना जाता है और यह दुनिया की सबसे पुरानी मौजूदा ज्ञान प्रणालियों में से एक है, जिसका संबंध पारिस्थितिकीय यानि इकोलॉजी के ज्ञान, विशेषकर वनस्पति की समझ से है। स्पीति के हंसा गांव के 71 वर्षीय आमची शेरिंग ताशि के साथ 1 घंटे की लंबी बातचीत में सोवा - रिग्पा की परम्पराओं और परिपाटी की बात होती है। यहां उस इंटरव्यू का कुछ भाग रख रहे हैं :

क्या आप सोवा - रिग्पा चिकित्सा परंपरा की उत्पत्ति के बारे में बता सकते हैं? 

 

आम धारणा के विपरीत सोवा - रिग्पा,  एक प्राचीन भारतीय ज्ञान प्रणाली है, ना कि तिब्बती। ऐसा माना जाता है कि जब बुद्ध ने वर्तमान बिहार के वैशाली में दुख निदान का अपना उपदेश दिया था तब वहां कई ज्ञानी लोग उपस्थित थे। दूर-दूर से आये अध्यात्मिक और दिव्य विद्वानों सहित कई सारे विद्वान उस उपदेश को सुनने के लिए उस समय वहाँ आये थे। बुद्ध ने अपना उपदेश पाली भाषा में दिया था परंतु उपस्थित सभी लोगों ने उनका संदेश अपनी-अपनी भाषाओं में सुना। और चूँकि सभी ने इसे अलग-अलग तरीके से सुना, यह सबके पास अपनी-अपनी तरह से दर्ज हुआ और भिन्न-भिन्न तरीके से प्रसारित हुआ -  भारतीय उपमहाद्वीप में आयुर्वेद के रूप में,  हिमालय और तिब्बत में सोवा - रिग्पा के रूप में। इस तरह यह ज्ञान विभिन्न संस्कृतियों में फैल गया।  इसका संबंधित अनुवाद नालंदा में संस्कृत में किया गया था. इस ज्ञान प्रणाली को आयुर्वेद की प्रधानता के कारण लुप्त होने का खतरा था, लेकिन तिब्बती लोगों ने इसे संरक्षित किया। तो हालांकि सोवा - रिग्पा की उत्पत्ति भारत में हुई थी, इसे तिब्बत में संरक्षित और पोषित किया गया. लोत्सवा रिंचेन ज़ांग्पो - बौद्ध धर्म के महान अनुवादक - ने अपने छठवे जन्म में इस काम का स्थानीय भोति लिपि में अनुवाद किया।

इस चिकित्सा पद्धति का आपके परिवार में कितने समय से अनुसरण हो रहा है?

 

स्पीति के हर गाँव - लोसार से लारी तक - में एक न एक परिवार इस चिकित्सा पद्धति का अभ्यास करता है। गाँव के लोग औषधीय पौधों के संग्रह और औषधियों को तैयार करने में मदद करते हैं। ऐतिहासिक परंपरा में हर गाँव में एक ना एक आमची रहता ही था क्योंकि गाँवों के बीच संपर्क मुश्किल था और सभी गाँवों में यह एक महत्वपूर्ण जरूरत की तरह था। आमची कोई भी शुल्क नहीं लेते थे; जिस किसी को स्वास्थ्य सहायता की जरूरत होती, यह एक सेवा के रूप में दी जाती थी।

मेरे परिवार में, मेरे पिता एक जानकार व्यक्ति थे। उनको सही-सही पता होता था कि किताब के किस पन्ने पर कौन सी चिकित्सा लिखी गई है (अपने सामने रखी एक  पुरानी चिकित्सा की किताब की ओर इशारा करते हुए)। मैं कभी अपने दादा से नहीं मिला, परंतु यकीन से कह सकता हूं कि यह ज्ञान उन्होंने मेरे पिता को दिया होगा। हालांकि मैं यह नहीं जानता की कैसे और कब से मेरे पूर्वज इस चिकित्सा पद्धति से इलाज करते रहे हैं परंतु मेरे पास इस चिकित्सा पद्धति पर कई पुराने उनके लिखे हुए नोट्स रखे हैं। मेरे दादा के पास, 1930 में, तब के पंजाब के गवर्नर का लिखा हुआ पत्र भी आया था, जो मैंने आज तक संभाल कर रखा है। यह तय है कि मेरा परिवार इस चिकित्सा पद्धति का अभ्यास कम से कम कई सौ वर्षों से कर रहा है। 

Organically grown iceberg lettuce in Lahaul_Tashi Angroop.jpg

अमची द्वारा औषधीय प्रयोजन के लिए पौधे के हिस्सों को एकत्रित करना; फोटो मयंक कोहली द्वारा

आपको आमची की पदवी कैसे मिली?

 

जब मैं छठवी कक्षा में पढ़ता था तब से मेरे पिताजी ने मुझे सिखाना शुरू कर दिया था।  मुझे स्कूल जाना होता था,  घर के कई सारे काम करने होते थे और इस पर भी ध्यान देना होता था। मैं घर की अकेली पुरुष संतान था और मेरी बहनों की तब तक शादी हो चुकी थी।  परंपराओं के विषय में और इस किताब को पढ़ने में मेरी रुचि बहुत कम थी। पर मेरे पिता ने हार नहीं मानी। उन्होंने मुझे धीरज का पाठ दिया। शायद जो भी थोड़ा बहुत मैं सीख पाया, उसके पीछे यही काम आया। यदि मैंने शुरू से सीखने में रुचि ली होती तो शायद मैं बेहतर आमची बनता। 

पद्धति के बारे में कोई भी 6 साल में सब कुछ सीख सकता है। परंतु मेरे पिता ने मुझे रोजनियम से सिखाया और इन ग्रंथों को रोज पढ़ने की आदत मेरे अंदर डाली, फिर चाहे सिर्फ 5 मिनट का ही समय कभी निकाल सकूं। यह ग्रंथ जो मेरे पास हैं, तकरीबन 600 साल पुराने हैं। इनको रोज पढ़ने से बहुत मदद मिलती है।

बीमारी को पहचानने और कौन सी दवा उपयुक्त है, इसकी पूरी प्रक्रिया क्या है?

 

चार  मौलिक पुस्तके हैं जो इस चिकित्सा पद्धति का आधार हैं, जो किसी भी आमची को अच्छी तरह, पूरी कंठस्थ, यानि याद, होनी चाहिए। इन मूलभूत सिद्धांतों को विस्तार से समझाने वाली यह दूसरी चार किताबें हैं। अंततः यह ग्रंथ (अपने सामने रखी पुरानी चिकित्सा लिपियों की ओर इशारा करते हुए) हैं जो कि एक संकलन की तरह हैं।  यह हर बीमारी के लक्षण, उसके उपचार और दवा की सामग्री का विवरण बताते हैं।  हम इस पुस्तिका में दिए गए  स्पष्टीकरण के साथ प्रत्येक रोगी के लक्षणों का मिलान करते हैं और इलाज करने के लिए इसमें दिए निर्देश का पालन करते हैं। 

 

जब कोई मरीज मेरे पास आता है तो मैं सबसे पहले उसकी नब्ज देखता हूं और कभी-कभी पेशाब भी। फिर मैं लक्षणों के विवरण को हैंड बुक में दिए गए विवरण से मिलाता हूं, हैंडबुक में सभी स्थानीय पौधों और उनके औषधीय मूल्यों का विवरण है। किसी विशेष बीमारी के लिए इनकी मात्रा का जरूरी अनुपात भी इसमें दिया गया है। सभी दवाएं मैं खुद बनाता हूं और किसी को इलाज के लिए देने के पहले अपने ऊपर उसका प्रयोग करके देख लेता हूं।  

 

किसी भी बीमारी के दो कारण हैं :  पहला पिछले जन्म में बुरे कर्मों का संचय , और दूसरा हमारे सामान्य परिवेश में हम जो उपभोग (भोजन, पानी और हवा इत्यादि) कर रहे हैं उसके असंतुलन से। एक आमची दूसरे कारण से होने वाली बीमारी का इलाज कर सकता है ; पहली का इलाज दवा से संभव नहीं है।  जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली बीमारी के लक्षण को महत्वपूर्ण मानती है, सोवा - रिग्पा बीमारी की जड़ को महत्वपूर्ण मानता है।

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स्पीति के हंसा गांव से अमची छेरिंग ताशी; फोटो तंजिन थिनले द्वारा

कब और कैसे वनस्पतियों का संग्रहण किया जाता है?

 

इनको संग्रहित करने का कोई नियत समय नहीं होता है। हम उपचार के लिए पौधे के विभिन्न हिस्सों का उपयोग करते हैं और इसलिए संग्रह हर मौसम में होता है। हम कुछ पौधों के फूल का इस्तेमाल करते हैं, वहीँ कुछ के बीज और कुछ की जड़ें। आमतौर पर किसी पौधे की जड़ें शरद ऋतु से पहले मिट्टी में गहराई तक बढ़ती है और वही सही समय है जब हम जड़ें  इकट्ठे करते हैं,  किसी और मौसम में हम  इनका संग्रहण नहीं करेंगे।  फूल बसंत में, जब उनके खिलने का मौसम हो तब एकत्र किए जाते। पौधों का कौन सा हिस्सा कब और कैसे इकट्ठा करना है, इसके स्पष्ट नियम हैं। 

 

एक अलग किताब में उन स्थानों का वर्णन किया गया है जहां पौधे पाए जा सकते हैं।  उदाहरण के लिए, एकोनिटम (भुआन कार्पो) ज़्यादातर उत्तर की ओर ढलान पर पाए जाते हैं और यही वह जगह है जहां हम उनकी तलाश करते हैं। डेल्फिनियम (लाडर मेनटोक) एक और अमूल्य पौधा है जो आमतौर पर हमारे मैदानों में उगता है। रोडिओला (शोलो)  भी उत्तर की ओर की ढलान में पाया जाता है -  स्पीति में इसकी तीन किस्में पायी जाती है : एक जिसमें सफेद फूल होते हैं, दूसरा जिसमें लाल

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Apple orchards on the hill slopes of Kinnaur; Wikimedia Commons

क्या जलवायु पैटर्न में बदलाव से औषधीय पौधों की उपलब्धता प्रभावित हो रही है? 

 

एक समय था जब व्यवसायिक उपयोग के लिए जंगली पौधों का संग्रह आम बात थी। हमने तब स्थानीय प्रशासन के साथ गैर जिम्मेदाराना संग्रह को सीमित करने के लिए बात की। उन्होंने तुरंत कार्यवाही की और हमें खुशी है कि स्थिति को बहुत अच्छे से संभाल लिया गया। हमारा मानना है कि स्पीति में स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए पौधे पर्याप्त होते हैं। स्पीति के लोग चाहे जितनी दवाई का इस्तेमाल करें, इस जमीन पर पौधे होते रहेंगे और वह कभी खत्म नहीं होंगे। हां,  यदि हम पौधों को व्यवसायिक उपयोग के लिए स्पीति के बाहर निर्यात करेंगे,  तो हम इस अमूल्य संसाधन को खत्म करने का जोखिम लेंगे। उत्पादन और उपभोग के बीच में एक बहुत बारीक संतुलन होता है, जिसे हमें बिगाड़ना नहीं चाहिए। बर्फबारी में बदलाव से पौधों की वृद्धि पर मामूली प्रभाव पड़ता है, पर इतना नहीं कि यह संतुलन बिगड़े।

While Spiti is following a similar trajectory to Lahaul and Kinnaur in switching to cash crops, there is one aspect in which it still remains traditional. While Lahaul and Kinnaur have adopted the use of synthetic fertilisers and pesticides, Spiti has largely resisted this switch. While a decreasing interest in livestock rearing may have led farmers of Lahaul and Kinnaur with little choice, livestock rearing persists in Spiti and most farmers are skeptical of introducing synthetic supplements. Farmers buy organic livestock manure from as far as Changthang in Ladakh and are also buying poultry manure from the plains. 

Peas cultivation in Spiti_Prasenjeet Yadav.jpg

Pea harvest in Kee village; Prasenjeet Yadav

Agriculture – a story of constant change

Agriculture in the high mountains of Himachal Pradesh has evolved continuously. Improving access and connectivity made it possible for farmers to take their produce to markets. With connectivity improving over the years, farmers have taken risks with growing perishable cash crops. Sometimes these risks also bring major losses, as they did in 2023 when unforeseen weather events caused widescale damage to infrastructure affecting transportation. However, in regular years the financial returns can be attractive. The advent of technology has further led to the adoption of locally relevant technical solutions. Farmers have diversified cropping and have been open to experiments, which have brought them financial rewards. They have balanced between selling their produce to cooperatives and private buyers. Rising incomes have let them broaden their aspirations, with younger generation getting opportunities for better education and greater exposure. Access to cash has also allowed farmers to hire labour, which was previously not possible. Many parts of Lahaul are now experimenting with various forms of contract farming where the profits are shared between the landowners and the labour who manage them. Remoteness may have brought out the dynamism of the farmers of Lahaul-Spiti and Kinnaur. The success of early experiments with cash crops by a handful of farmers paved the way for the entire region. Locals were aware of the risks they were exposed to on account of their remoteness, and they countered this challenge by setting up institutions and arrangements that distributed both the risks and rewards. In the process, cultivation of traditional crops has declined and is now limited to very small pockets.

Unlike several other Himalayan regions where farming is in severe decline, farming retains its significance in the region. With nearly all households of the region involved in agriculture, it forms a key source of income. And with almost all households owning land parcels on account of land reforms, almost every family has benefited financially, even though the benefits may vary with the size of land holding. This reflects in the fact that the districts of Kinnaur and Lahaul-Spiti rank second and third in terms of per capita incomes among the districts of Himachal Pradesh, and are well above the average per capita income of the country. There is a continuous demand for land to be brought under cultivation through the extension of nautor rules. A lot of this commercial success has also been possible because of the local climate, which has allowed these regions to supply off-season produce that fetch a premium. But with rising uncertainty in weather patterns, farmers and farming stand increasingly exposed to greater risks even as people’s relation with their land remains strong.

लेखक का परिचय

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डॉ. मयंक कोहली

 

यह एक संक्षिप्त अंश है और आप पूरा साक्षात्कार हमारे YouTube चैनल: @HimKatha पर देख सकते हैं। यह साक्षात्कार डॉ. मयंक कोहली द्वारा आयोजित किया गया था जो प्लांट सिस्टम का अध्ययन करते हैं और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में इंस्पायर फेलो हैं।

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