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लद्दाख की कृषि में परिवर्तन

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नवांग तन्खे द्वारा चित्रण

कृषि से हटकर अन्य आर्थिक गतिविधियों की और तेजी से बढ़ता रुझान वैश्विक स्तर पर कई कृषि अर्थव्यवस्थाओं में देखी जा रही एक आम प्रवृत्ति है। यह बदलाव अक्सर शहरीकरण, बदलती जीवन शैली और कृषि क्षेत्र के बाहर उपलब्ध आर्थिक अवसरों जैसे विभिन्न कारकों से प्रेरित होती है। लद्दाख की कृषि इसमें अपवाद नहीं है।

पारंपरिक लद्दाखी खेती और खाद्य प्रणाली में, सूर्य प्राथमिक ऊर्जा का स्त्रोत था जिस से पौधों की वृद्धि, शारीरिक श्रम और वेग से बहते पानी से चलने वाली चक्की और सिंचाई, होती थी। मिट्टी और फसलों की उर्वरता खेतों में खाद और कम्पोस्ट (लुट, चुलुट, और अन्य ) के पुनरावृत्ति से और ग्लेशियर के पिघले पानी में उपलब्ध खनिजों से आती थी। 'पैकेजिंग' – यदि होनी है तो वह – हाथ से बने ऊनी बोरों, लकड़ी और मिट्टी के बर्तनों, घास की टोकरियों और चिनाई वाले अन्न भंडारण, में होती थी, जिन्हें इस्तेमाल होने के बाद सुरक्षित रूप से मिट्टी में वापस समाहित कर दिया जाता था। फसलों की ढुलाई शारीरिक श्रम के माध्यम से होती थी, और खाना पकाने का काम स्थानीय नवीकरणीय ईंधन जैसे गोबर के उपले या लकड़ी के फट्टों से किया जाता था। आवर्तनशील चराई के माध्यम से चरागाहों के संरक्षण का ध्यान रखा जाता था, और किसान खेतों में कीड़ों को भी हानि पहुंचाने से बचते थे। पारिस्थितिक पदचिह्न – जिसके अंतर्गत ऊर्जा और पानी की खपत, अपशिष्ट उत्पादन, आदि का कुल पारिस्थितिक प्रभाव – बहुत कम था। वर्तमान संदर्भ में, हम कह सकते हैं कि पारंपरिक लद्दाखी खेती और खाद्य प्रणाली सौर-संचालित, शून्य-बाहरी इनपुट, शून्य-अपशिष्ट, पुनर्योजी, अपने आप में पूर्ण और टिकाऊ थी!

आज, जबकि बहुत कुछ पारंपरिक खेती और खाद्य प्रणाली का अस्तित्व अभी बचा है, कई गहन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से यह लगातार नष्ट होता दिख रहा है। इन परिवर्तनों के पर्यावरणीय प्रभाव साल दर साल बढ़ रहे हैं।

सदियों की सतत खेती - पशुचारण प्रणाली में पतन का बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव ग्रामीण जीवन पर साफ़ तौरसे दिखता है। पर्यटन, सेना और प्रतिस्पर्धी शिक्षा के विकास ने संयुक्त रूप से युवाओं और विशेष रूप से युवा पुरुषों को गांवों से लेह, या उससे भी दूर कर दिया है। नतीजतन, कुल श्रम की उपलब्धता घटी है, और खेती का अधिकांश काम गांव की महिलाओं और पैसे से श्रम के लिए उपलब्ध मजदूर के ऊपर आ गया है। कई खेत जो किसी समय गर्मियों में हरे-भरे हुआ करते थे, आज काम करने के लिए लोगों की कमी के कारण बंजर पड़े हैं। लोगों की कमी से, पशुधन में भी काफी कमी आई है, बकरियों और भेड़ों के झुंड कई गांवों से लगभग गायब हो गए हैं। हालांकि संभव है कि इस परिवर्तन ने चारे के लिए प्रतिस्पर्धा को कम करके कुछ हद तक जंगली शाकाहारी जीवों को लाभान्वित किया हो, लेकिन इसने मिट्टी और फसल पोषण के लिए उपलब्ध समृद्ध, जैविक स्थानीय खाद की मात्रा में कमी कर दी है। इसकी भरपाई के लिए, कई किसानों ने सिंथेटिक उर्वरकों के उपयोग की ओर रुख किया है जो पानी और हवा दोनों को प्रदूषित करते हैं, और जीवाश्म ईंधन निर्माण के लिए सघन ऊर्जा नष्ट करते हैं।

फसल और जल

 

कृषि में गिरावट दालों, अनाज और कुट्टू जैसे अनाज सहित अन्य फसलों में विविधता की कमी में भी दिखती है (हालांकि धीरे-धीरे इस प्रकार के अनाज वापस लाने के प्रयास किए जा रहे हैं)। लद्दाखी खेतों और रसोई में पारंपरिक दालों जैसे काली दाल की कमी स्थानीय आहार के साथ-साथ स्थानीय मिट्टी के स्वास्थ्य को भी कम करती है। दालें स्वाभाविक रूप से वायुमंडलीय नाइट्रोजन को मिट्टी में पोषित करती हैं, इसलिए जब उन्हें लगाया जाता है तो नाइट्रोजन उर्वरकों की कोई आवश्यकता नहीं होती है। उनके बिना, प्राकृतिक प्रजनन-पोषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत कम हो जाता है। तिलहन के संदर्भ में, जबकि लद्दाखी पहले स्थानीय सरसों की खेती बड़े पैमाने पर करते थे और अपने स्वयं के खाद्य तेल का उत्पादन करते थे, आज सरसों की खेती घट रही है। प्लास्टिक की बोतलों में पैक किए गए और भारतीय मैदानी इलाकों के शहरों से ट्रक में लाए गए वाणिज्यिक खाद्य तेलों का अब लद्दाखी रसोई में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।

ग्या गांव 14,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ किसान विभिन्न किस्मों की जौ की खेती करते थे क्योंकि क्षेत्र की जलवायु उसकी खेती के लिए अनुकूल थी। इस क्षेत्र के कम तापमान के कारण, लद्दाख के पूर्वी क्षेत्र में गेहूं शायद ही कभी उगाया जाता था। वर्तमान में उसी क्षेत्र के लोग छत्तीस से सैंतीस विभिन्न प्रकार के अनाज और सब्जियों की खेती कर रहे हैं। ग्या गांव के आछो उर्गेन कहते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इन दिनों पौधों की बहुत सारी किस्मों तक उनकी पहुंच है। वह किनोआ, और त्से-त्से (फॉक्सटेल अनाज) जैसी कई नई फसलों की खेती कर रहे हैं, जो लद्दाख के देशी अनाज हैं और इन दिनों शायद ही कभी उगाए जाते हैं। 2014 के बाद से, जलवायु परिवर्तन जैसे कई कारकों से पूरे लद्दाख में हरी मटर बड़े पैमाने पर उगाई जा रही है। परन्तु इसके पीछे एक बड़ा कारण कृषि का बढ़ता व्यवसायीकरण है, क्योंकि हरी मटर की मांग लद्दाख और बाहर के बाज़ार में बहुत ज़्यादा है। अब सब्जियों की अपेक्षाकृत अनोखी किस्म उगाई जाती है, जैसे फूलगोभी, गोभी, चुकंदर, और शलजम की विभिन्न प्रकार की किस्में।

पहाड़ के लोगों को कृषि में कई बदलावों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे पानी की कमी, वो भी फसल की विशेष जरूरत के समय। यह जरूरी है कि मार्च के अंत या अप्रैल की शुरुआत तक खेतों में पानी दे दिया जाए। परिवर्तनशील मौसम पैटर्न के कारण बीज बोने के समय ग्लेशियर नहीं पिघलते और इस तरह पानी को अपने में ही संग्रहित रखते हैं। 21 जून से दिन की स्थिति में परिवर्तन होने लगेगा, इसलिए जुलाई में भी पानी की कमी रहती है। कृषि पर जलवायु परिवर्तन का एक अन्य प्रभाव हिमनद झील के फटने से आने वाली बाढ़ की बढ़ती संभावना और गंभीरता से है, जिसका 2007, 2009 और 2014 में ग्या गांव जैसे निचले इलाकों के गांवों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है।

 

 

 

 

भूमि का उपयोग

 

लद्दाख में रीतसोत नामित संगठन के कृषि-उद्यमी रिंचेन युतोल का दृष्टिकोण पिछले एक दशक में तेजी से हो रहे बदलाव पर प्रकाश डालता है, जो चुनौतियों और अवसरों दोनों को प्रस्तुत करता है।

 

कृषि भूमि का कंक्रीट संरचनाओं में बदलना एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में सामने आया है, और इस प्रक्रिया को उलटना निश्चित ही अव्यावहारिक है। यह अपूरणीय क्षति भोजन में आत्मनिर्भरता को कम करती है और आयातित खाद्य पदार्थों पर निर्भरता को बढ़ाती है। इस तरह की निर्भरता हिमालय में परिवहन नेटवर्क में किसी भी व्यवधान (जैसे ईंधन की कमी, या सड़क बंद) की स्थिति में असुरक्षा को बढ़ाती है। इसके अतिरिक्त, एकल परिवारों के कारण कृषि भूमि का विभाजन समग्र कृषि भूमि उपयोग को और कम कर सकता है।

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मार्खा के चोरटेन और खेत; विकिमीडिया कॉमन्स

 

उर्वरक

 

लद्दाख में सिंथेटिक उर्वरकों का उपयोग 1970 के दशक के अंत से किया जा रहा है, जिसकी सरकार द्वारा अत्यधिक रियायती दरों पर आपूर्ति की जाती है। मुख्यतः तीन सिंथेटिक उर्वरकों का उपयोग किया जाता है: यूरिया, डीएपी (डायमोनियम फॉस्फेट), और एमओपी (म्यूरिएट ऑफ पोटाश / पोटेशियम क्लोराइड) । लद्दाख के कृषि विभाग और मिशन ऑर्गेनिक डेवलपमेंट इनिशिएटिव के आंकड़ों से पता चलता है कि सामान्य तौर पर, लद्दाख में सिंथेटिक उर्वरक की मात्रा कम हो रही है।

यह प्रवृत्ति लेह जिले को 10 वर्षों के भीतर पूरी तरह से जैविक बनाने के लिए हिल काउंसिल के नए दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह बहुत उत्साहजनक है, क्योंकि जितना अधिक उर्वरकों का उपयोग किया जाता है, उतना ही वे मिट्टी में प्राकृतिक नाइट्रोजन की उपलब्धता को बाधित करते हैं, जिसके लिए अतिरिक्त उर्वरकों की आवश्यकता होती है - एक रासायनिक लत की तरह!

पशु अपशिष्ट से उपलब्ध खाद की कमी के अलावा, पर्यटन के कारण पारम्परिक शौचालय का फ्लश शौचालय और सेप्टिक टैंक में परिवर्तन – वो भी सिर्फ लेह में नहीं बल्कि सभी जगह – मिट्टी, समृद्ध मानव अपशिष्ट से भी वंचित हो रही है जो कि पारंपरिक कम्पोस्ट शौचालय का अवशेष था। 

स्थानीय मांग की पूर्ति के लिए, लद्दाख के कृषि बहुल जिलों के गांवों में चांगथांग से पशु अपशिष्ट खाद लाने की नई पहल की जा रही है, साथ ही सरकार पंजाब से जैविक खाद भी आयात कर रही है। हालांकि निश्चित रूप से यह रासायनिक उर्वरकों की अपेक्षा एक स्वागत योग्य बदलाव है, परन्तु खाद और उर्वरक के परिवहन में ईंधन की खपत और डीजल के धुएं से हवा के प्रदूषण के मामले में पर्यावरणीय लागत पर भी विचार करने की आवश्यकता है। इसलिए भविष्य की चुनौती जैविक खाद और उर्वरक उस स्थान के नज़दीक उत्पन्न करने के लिए होगी, जहां उसका उपयोग किया जाना है. इस से परिवहन लागत और प्रदूषण कम होगा, और स्थानीय पोषक तत्वों से मिट्टी के पुनःनवीनीकरण में मदद मिलेगी। कम्पोस्ट शौचालय, रेस्तरां और आवासीय खाद्य अपशिष्ठ संग्रह और कम्पोस्टिंग, का आक्रामक प्रचार, और ऐसी अन्य पहल स्थानीय खाद अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में भूमिका निभा सकती हैं।

 

बीज

 

किसी भी क्षेत्र की कृषि में परिवर्तनों की जांच करते समय विचार करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक बीज है। देशी या पुरानी फसलों के उत्पादन में गिरावट से स्थानीय बीजों की उपलब्धता प्रभावित होती है। सब्जियों के जो बीज वर्तमान में सरकार द्वारा या बाजार में उपलब्ध कराए जाते हैं वो मुख्यतः संकर बीज होते हैं, जिनमें लद्दाख के कृषि परिदृश्य को बदलने की क्षमता है और क्षेत्र की खाद्य संप्रभुता और किसानों की आर्थिक स्वतंत्रता को यह प्रभावित करेगा।

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लामायुरू में फसल की पारंपरिक मंडाई; विकिमीडिया कॉमन्स

 

 

 

मशीनीकरण

 

कृषि और पशुचारण में जीवाश्म ईंधन ऊर्जा पर निर्भरता भी बढ़ रही है, क्योंकि पारंपरिक उपकरणों, तकनीकों, भारवाहक जानवरों को यांत्रिक, गैस संचालित थ्रेशिंग मशीनों, मिलों, यांत्रिक हल, ट्रैक्टरों आदि द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। चांगथांग में, पिक-अप ट्रक और जीप लगातार भारवाहक जानवरों की जगह ले रहे हैं, जिसका प्रभाव चराई के मैदानों की मिट्टी की ऊपरी सतह पर पड़ा है। इस बदलाव के चलते मशीन खरीदने या किराए पर लेने और उसके ईंधन के लिए धन की पूर्ति हेतु धन आधारित अर्थव्यवस्था और बाहर की नौकरियों पर निर्भरता बड़ी है।

 

परिणाम

 

लद्दाख में पारंपरिक खेती और खाद्य प्रणाली से दूरी के साथ-साथ बढ़ते पर्यटन का स्पष्ट रूप से बहुत अवांछनीय पर्यावरणीय प्रभाव पड़ रहा है। यदि इस बदलाव से सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों का ही ह्रास हो रहा है, तो शायद यह पुनर्विचार करने, दिशा बदलने और स्थानीय खाद्य अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का समय है। यह कैसे संभव होगा? लद्दाख को जैविक खेती वाला क्षेत्र बनाने की हिल काउंसिल की प्रतिबद्धता एक बहुत ही उत्साहजनक पहला कदम है। इसके अतिरिक्त, आछो उर्गेन और रिंचेन यूतोल जैसे व्यक्तियों द्वारा दिखाया गया आशावाद और उत्साह प्रोत्साहित करने वाला है। वर्तमान युग में आर्थिक और उससे परे कृषि के महत्व के बारे में उनकी गहरी समझ, सकारात्मक बदलाव की संभावना का सुझाव देती है। कृषि के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों के साथ मिलकर स्थायी और अभिनव कृषि प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करने वाली पहल, इस आवश्यक क्षेत्र के पुनरुद्धार और प्रतिधारण में योगदान कर सकती है। पारंपरिक फसलों की वापसी को प्रोत्साहित करते हुए पैक किए गए जंक फूड को हतोत्साहित कर, पशुधन झुंडों की बहाली, गांव के नवीनीकरण, और इसी प्रकार के अन्य उपाय द्वारा सरकार और स्थानीय लोग इस तरह के बदलाव का समर्थन कर सकते हैं।  खेती के लिए कृषि योग्य भूमि को सदा के लिए कैसे संरक्षित किया जा सकता है? क्या आधुनिक कृषि मशीनों को स्थानीय, नवीकरणीय ऊर्जा द्वारा संचालित किया जा सकता है? जंक फूड के आदी युवा लोग स्वस्थ स्थानीय खाद्य पदार्थों में कैसे फिर रुचि ले सकते हैं और कैसे उनके महत्व को फिर समझ सकते हैं? स्थानीय, जैविक भोजन और खेती का समर्थन करने में पर्यटक क्या भूमिका निभा सकते हैं? इन प्रश्नों और ऐसे कई अन्य प्रश्नों के जवाब तत्काल खोजने की आवश्यकता है।

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नवांग तन्खे द्वारा चित्रण

लेखक का परिचय

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एलेक्स जेन्सेन

एलेक्स लोकल फ्यूचर्स में एक शोधकर्ता और परियोजना समन्वयक हैं। उन्होंने अमेरिका और भारत में काम किया है, जहां वह लोकल फ्यूचर्स के लद्दाख प्रोजेक्ट का समन्वय करते हैं। वह विकल्प संगम/अल्टरनेटिव्स इंडिया पहल के कोर ग्रुप में लोकल फ्यूचर्स का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने कई देशों के कृषि समुदायों (कैंपेसिनो) में सांस्कृतिक पुष्टि और कृषि-जैव विविधता परियोजनाओं के साथ काम किया है। वे पर्यावरणीय स्वास्थ्य / विषाक्त-रोध के काम में सक्रिय हैं।

कुंजांग डीचेन

कुंजांग एक सामुदायिक आयोजक हैं जो लद्दाख में युवा किसानों, संवेदनशील पर्यटन और सांस्कृतिक जीवन शैली का समर्थन करती हैं। उन्होंने वर्ष 2017 में दिल्ली की नौकरी छोड़कर इन्फिनिटी लद्दाख की शुरुआत की जिसका उद्देश्य योग, ध्यान और प्राकृतिक अभियानों के माध्यम से आध्यात्मिक और शारीरिक कल्याण को प्रोत्साहित करना है। वर्ष 2020 से, वह लोकल फ्यूचर्स लद्दाख प्रोजेक्ट का समन्वय कर रही हैं, जो वैश्वीकरण की ताकतों के सामने भूमि-आधारित ज्ञान और पारंपरिक कौशल की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। उनकी लद्दाख के स्थानीयकरण आंदोलन की नेता के रूप में पहचान है।

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