खेती-किसानी व आधारिक परिवर्तन
नवांग तन्खे द्वारा चित्रण
ऐसा माना जाता है कि इस धरती पर कृषि करीब ग्यारह-बारह हजार साल पुरानी है और भारत में उसका आगमन करीब साढ़े आठ-नौ हजार साल पहले हुआ। जंगल में षिकार व कंद-मूल खाते-खाते मानव किस तरह अन्न के उत्पादन की शुरूआत की ओर बढ़ा होगा, अलग-अलग समुदायों और सभ्यताओं में कैसे यह प्रक्रिया चली व फैली होगी - वह अपने-आप में अद्भुत इतिहास है। पर क्या हमने कभी सोचा या पूछा कि कृषि में ऐसी क्या बात थी या है कि इतने सहत्रों वर्ष बाद वह आज भी हमारे जीवन व उसकी उत्तरजीविता का प्रमुख आधार और हमारे जीवन की उपार्जनता व सार्थकता का प्रमुख मापदण्ड है!
आमतौर पर, कृषि की अहमियत का मुख्य कारण तो यही देखा जाता है कि वह हमारे आहार का, हमें शारीरिक तौर पर काबिल व जिन्दा बने रहने का जरिया है। मगर उसकी भूमिका इतनी भर ही नहीं है। एक सवाल है कि हम जो खाते हैं, क्या वह हमें सिर्फ शारीरिक तौर पर प्रभावित करता है? वास्तव में, अन्न उत्पादन का जरिया बनने के साथ-साथ, खेती-किसानी ने हमें चिंतनषील व विवेकपरक बना कर हमारे मानवीय जीवन के हर पहलू - शारीरिक, मानसिक या आत्मिक तथा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आदि - को पैदा व प्रभावित किया है। अपने चारों ओर नजर दौड़ाएं तो हम बता नही पायेंगे कि हमारे समाज का कौन सा पक्ष है - चाहे जंगलों का चिंतन हो या पानी का या हमारी आजीविकाओं व कलाओं का या हमारी भाषाओं का - जिसका उदय खेती-किसानी से नहीं हुआ है। मूलतः, अलग-अलग स्थान व काल खण्डों में, तमाम पड़ावों और संघर्षों से होते हुए, खेती-किसानी ने इंसान और समाज की जीजीविषा और हमारी सभ्यताओं को आज तक पाला पोसा; और स्वयं समाज ने भी उसे अपने दैनिक जीवन, अपनी सोच, आपनी सामाजिकता का मुख्य हिस्सा बना कर उसके मार्फत सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों को जन्म दिया, तराषा व पनपाया और खुद को भी सार्थक बनाए रखा।
ऊपर के पैरा में, मैने खेती-किसानी शब्दावली का इस्तेमाल किया है, और इसलिए कि हमारे आहार व उसके उत्पादन के कर्म का हमारे समाज पर प्रभाव इसलिए संभव हुआ कि किसान समाज ने कृषि को खेत व अन्न उत्पादन तक सीमित न रख कर, इसे खेती-किसानी में तब्दील किया। क्या आप दोनों - कृषि व खेती-किसानी - में कुछ फर्क देखते या देख सकते हो? मैं खेती-किसानी शब्दावली को कृषि के बरक्स देख व रख रहा हंू कि कृषि अगर कृषि ही रहती तो वह सिर्फ एक कर्म व व्यवसाय बन कर रह जाती लेकिन उसे खेती-किसानी बना देने से दुनिया के समस्त समाजों ने उस पूरे कर्म को अपने संपूर्ण जीवन का ही अहम व अभिन्न अंग बना दिया। खेती-किसानी होने से, उसमें और समाज में सहचार्य का रिष्ता बना, यानि उसने समाज को प्रभावित किया व स्वयं भी समाज से प्रभावित होती रही। इसीलिए दुनिया के किसी भी आदम समाज ने खेती-किसानी को कभी एक व्यवसाय या पेषे के तौर पर परिभाषित नही किया और कभी उसका वैसा पालन नहीं किया बल्कि उसे एक पूर्ण जीवन-पद्ध़ति माना। कृषि और खेती-किसानी में इस मूल फर्क ने उसके कर्म को कभी जड़ नही बेनने दिया और उसे एक गुण - परिवर्तनषीलता - दिया जिससे काल व स्थान के अनुसार, हर स्थानीय स्तर पर, मानवीय अनुभव व विवेक के आधार पर वह प्रासंगिक, जीवंत व नित नयी बनी रही। खेती-किसानी में परिवर्तनषीलता उसका एक नैसर्गिक गुण की तरह स्थायी बना जिसने समाज व स्वयं उसे शाष्वत्ता प्रदान की, जिसे आज हम क्रम-विकास भी कहते हैं।
इस चर्चा में हम बात परिवर्तन की कर रहे हैं और मैं इस लेख में कुछ मूल या आधारिक परिवर्तनों की बात करना चाहता हंू। जिस तरह, इस लेख में मैं कृषि व खेती-किसानी में फर्क कर रहा हूं, उसी तरह मैं परिवर्तन व परिवर्तनषीलता, इन दो शब्दों का भी अलग-अलग अर्थ में इस्तेमाल कर रहा हंू।
अगर हम कृषि व खेती-किसानी में फर्क को और उसे परिवर्तन व परिवर्तनषीलता में फर्क के संदर्भ में देख सकें तो हम इस क्षेत्र में पिछले पचास-एक सालों में आ रहे बदलावों के मर्म को ठीक से पकड़ पायेगें।
जिस तरह, कृषि व खेती-किसानी एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं है, उसी तरह परिवर्तन और परिवर्तनषीलता भी एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इसके लिए हमें उनकी परस्पर तुलना दो अलग-अलग काल-खण्डों में करने की जरूरत पड़ेगी।
खेती-किसानी में पिछले पचास-साठ सालों में हुए परिवर्तन दरअसल समाज में उस बड़े परिवर्तन के फलस्वरूप हुए हैं जिसकी शुरूआत दो-तीन सौ साल पहले हुई थी और जिसे हम दुनिया में औद्योगिक क्रान्ति या महा-बदलाव की शुरूआत मानते हैं। अतः औद्योगिकरण के रूप में समाज में महा-बदलाव हमारे लिए एक विभाजन रेखा प्रस्तुत करती है जिससे पहले और बाद के परिदृष्यों को देखते हुए हम पायेंगे कि दोनों काल-खण्डों में खेती के मूल चरित्र, आस्था, विचार, परिपालन व परिणाम में आमूल-चूल विभेद है। इस आमूल-चूल परिवर्तन के ही संदर्भ व पाष्र्व में हम पिछले पचास-एक सालों में हो रहे तमाम परिवर्तनों के कारण व प्रभाव को समझ सकेंगे।
पहले के दस-बारह हजार सालों में असंख्य छोटे-बड़े बदलाव हुए लेकिन ये बदलाव अलग-अलग समय पर, अलग-अलग स्थान पर, अलग-अलग समुदायों द्वारा प्रकृति - पंचतत्व - की साझीदारी में किये गये। उन बदलावों का सूत्रपात विषुद्ध स्थानीय स्तर पर हुआ और कोई भी बदलाव एक लंबे समय में बारीक अवलोकन व अर्जित अनुभव के आधार पर एकाएक नहीं बल्कि श्नै-श्नै हुआ। अर्थात् इस प्रक्रिया में प्रयोग-धर्मिता भी थी, जिसमें कुछ प्रयोग सफल हुए होंगे व कुछ आगे या पीछे असफल, जिनके आधार पर वे समाज द्वारा स्थानीय स्तर पर स्वीकार, अस्वीकार व संषोधित हुए होंगे। इस तरह का क्रम निरन्तर चलता रहा होगा। इस पूरी प्रक्रिया ने ही खेती को वह गुण दिया जिसे हम परिवर्तनषीलता के तौर वर्णित करते हैं - जिसमें कोई एकदम नया नही बल्कि पुरानी प्रथा की ही नींव पर उभरा एक नया पौधा, एक बदलाव, जिसने पुराने को कुछ कदम आगे बढ़ाया।
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इस तरह के क्रम-विकास की विषेषता उसकी स्थानिकता रही अर्थात् जो भी बदलाव या विकास हुआ वह सर्वथा स्थानीय समूदायों के अनुभव व विवेक के आधार पर हुआ। इसका एक परिणाम यह हुआ कि स्थानीय स्तर पर समृद्ध पारम्परिक ज्ञान का भंडार विकसित हुआ जो सिर्फ खेती से जुड़े अनाजों तक सीमित नही रहा बल्कि सभी प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े ज्ञान को भी अपने में समेटा। इससे भौगोलिक विविधता के आधार पर, खेत में उगाये जा रहे उत्पादों की और चूल्हों में आहारों की अपार विविधता पनपी। इतना ही नही; इसका प्रभाव यह भी रहा कि स्थानीय स्तर पर खेती-किसानी से इतर, एक तरफ विविध लोक भाषाओं व मुहावरों, विविध लोक-कलाओं को और दूसरी ओर लकड़ी व धातु के औजारों, बर्तनों की निर्माण तकनीकज्ञी को भी जन्म दिया। वास्तव में, कृषि ने अपने सीमित अनाज या आहार उत्पादान से बढ़कर, खेती-किसानी का व्यापक स्वरूप अख्तियार किया और एक जीवन पद्धति बनी। यह कहना भी अतिष्योक्ति नही होगी कि खेती-किसानी के कर्म ने, मानव में अवलोकन आधारित वैज्ञानिक सोच या प्रक्रिया को जन्म दिया और आगे चलकर उसी के आधार पर मौसम विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान, आदि की लोक मानस में समझ शुरू हुई। आप किसी भी विषय में मौलिक व तत्थपरक ज्ञान को देखें तो पायेंगे कि उसके बीज खेती-किसानी से, उसके द्वारा पैदा हुए माहौल में ही फूटे। वास्तव में, खेती-किसानी, स्थानिक होते हुए भी अपने में विराट व वैष्विक प्राकृतिक दृष्टि संजोए थी। वह ईष्वरीय प्राकृतिक परिकल्पना की निकटतम सहयोगी व पहल बनी। और खेती-किसानी का इस धरती के बने रहने व सजने-संवरने में अहम भूमिका रही।
इस पूरे परिदृष्य को हम एकसूत्र में बांध कर देखें और लोकतंत्र की परिभाषा से उधार लें, तो कहा जा सकता है कि खेती-किसानी में विकास या परिवर्तनषीलता ‘‘लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा’’ थी। और परिकल्पना से लेकर नियोजन व कार्यान्वयन, इसका पूरा जिम्मा व नियंत्रण स्थानीय लोगों के ही मन-मस्तिष्क व हाथ में रहा।
खेती-किसानी में परिवर्तन को लेकर मैं दो काल-खण्डों में तुलना की बात कर रहा हंू तो इसलिए कि पहले के परिवर्तनों या परिवर्तनषीलता में और बड़े उद्योगों की दो-तीन सौ साल पहले शुरूआत के बाद (और खासकर, उन्ही उद्योगों से प्रेरित हरित क्रान्ति के बाद) हुए परिवर्तनों में जमीन-आसमान का फर्क है। और यह फर्क हर स्तर पर है - खेती-किसानी के स्वरूप, उद्देष्य व परिणाम में दिखता है।
खेती-किसानी, जो जीवन का फलसफा था, जीवन पद्धति थी वह अब मात्र एक व्यवसाय व रोज़गार बन के रह गयी है, बल्कि वह अब खेती-किसानी रही ही नही तथा वापस सिर्फ कृषि बन रह गयी है। वह अब जीवन को उत्कर्ष बनाने का माध्यम नही बल्कि सिर्फ जिंदा रहने, आर्थिक रूप से जिंदा रहने का जरिया रह गयी है। आज जो खेती हो रही व प्रोत्साहित की जा रही है वह सामाजिक न होकर, ओद्योगिक हो गयी है, अर्थात् उसका मालिकाना समाज पे न रह कर, औद्योगिक इकाईयों पे तेजी से चली गयी या जा रही हैै। वह किसानों का अपना ईजाद किया हुआ या जमीन पर अर्जित इल्म पर आधारित नहीं, बल्कि सोच, विचार, अवलोकन, शोध व कार्यान्वयन, पूरा का पूरा किसी संस्थान या कंपनी की प्रयोगषाला से निकल कर किसानों को एक पैकेज की तरह वितरित किया जाता हैं। यह खेती-किसानी की परिवर्तनषीलता का हिस्सा नहीं, वरन् वास्तव में हम सही मायनों में उसे परिवर्तन भी नही कह सकते बल्कि पूरे इरादे से किया गया, समाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रिया को एकमुष्त, जड़ से उखाड़ फेंकने व आमूल-चूल हथियाने का पूरी तरह नियोजित अभियान (जिसे षढ़यंत्र भी कहा जा सकता है) रहा। खेती-किसानी की जो आदि-अनंत से स्वीकार्य विषिष्टताएं थी, वे धीरे-धीरे दरकिनार या मिटा दी गयीं।
इस परिवर्तन का एक अहम हिस्सा रही भारत में अंग्रेजों द्वारा प्रतिस्थापित जमींदारी प्रथा, जिससे समाज में ही दो वर्ग रेखांकित कर किसान से उसकी स्वतंत्रता व रचनात्मकता छीन ली और उसे गांव स्तर पर ही स्थानीय सत्ता का गुलाम बना दिया। तो शोषित परिवर्तन की एक पूरी नींव है जो आगे चलकर हरित क्रान्ति (जिसे दरअसल, हरित भ्रान्ति कहना ही ज्यादा सही होगा) में तब्दील हुई। दौ-तीन सौ साल पहले यूरोप से शुरू हुई औद्योगिक क्रान्ति के तहत खेती-किसानी के सभी मायने एक-एक कर, धीरे-धीरे किनारे किए जाने लगे।
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इसकी शुरूआत हुई, पारंपरिक समाज के समस्त अस्तित्व व पहचान, संपूर्ण क्रियाओं को पिछड़ा कहने से और आक्रमण हुआ समाज के लोकज्ञान व उनके बीजों पर। ऐसा करना उनके लिए बहुत जरूरी था कि समाज को अपने अतीत व वर्तमान को लेकर हीन भावना से ग्रसित करना। और जब ऐसा हासिल हो गया तब दूसरा आक्रमण या परिवर्तन हुआ - स्थापित साधनों व संसाधनों को हटा कर उनकी जगह अपने साधनों-संसाधनों को प्रवेष व स्थापित करने का। और इन सब का परिणाम हुआ कि आत्मनिर्भर व उत्पादक किसान समाज आज एक आश्रित किसान समाज बन गया है।
इसे दो-एक उदाहरणों से समझें -
पहले, किसी भी अनाज या उत्पाद के बीज किसानों के अपने होते थे जिनपर मालिकाना हक उनका अपना होता था - अपने व्यक्तिगत या गांव स्तर पर। और जिसको जिस बीज की जरूरत या इच्छा होती वह उसे अपने घर पर नही तो अपने पड़ौसी के यहां या गांव अथवा पड़ौसी गांव में मिल जाते थे। ये बीज थे जो वहीं की मिट्टी-पानी में ही जन्में व पले-बड़े थे, तथा स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों के अभ्यस्त व अनुकूल थे जिनकी वजह से उन बीजों में अद्भुत विविधता फलत हुई। उन विविधताओं के चलते, समाज को हर मौसम, हर स्वाद, हर स्वास्थ के संदर्भ में बीजों के लक्षण पनपे जिसने समाज को एक अद्भुत समृद्धि दी। और साथ ही, स्थानीय परिवेष में उनमें जबरदस्त रोगाणू-निरोधक शक्ति विकसित हुई।
साथ ही, बीजों को लेकर लोगों की अपनी विनिमय प्रथा थी - बीज एक किसान से दूसरे को जाता था और फसल कट जाने के बाद कम से कम दुगने माप में देने वाले किसान परिवार को लौटाया जाता था। इस प्रक्रिया का एक मानवीय पक्ष था कि यदि आकाल या बाढ़ या अतिवृष्टि के कारण फसल को नुकसान होता, तो लेने वाले किसान को बीज को लौटाना ही लौटाना है उसकी मजबूरी नही रहतीे थी, और दोनों पक्षों का आपस में अलिखित-अवर्णित कुछ समझौता होता। कुल मिला कर, बीज की उपलब्धता व व्यवस्था स्थानीय स्तर पर निरंतर बनी रहती।
आज, बीजों को लेकर व्यवस्था पूरी उलट गयी है। लोगों के हाथ से निकल कर बीज का मालिकाना कंपनियों का हो गया है और किसान मालिक से ग्राहक बन चुका है जो तमाम तरह की बंदिषों, संषयों व मंहगाई की शर्तों व मजबूरियों में बंधा हुआ है। और भी बहुत सारी बातें इनसे यहां जुड़ी है, जिन्हे आज किसान समाज ठीक से समझता व भोग रहा है मगर कुछ भी न कर सकने की मजबूर हालत में है।
नये व पुरानी परिस्थितियों में बीज को लेकर फर्क का एक और उदाहरण लेते हैं। आज क्योंकि उत्पादन दूसरे साल से ही तेजी से घटने लगता है, किसानों को हर दो-एक साल में बीजों को बदलना व नये सिरे से खरीदना पड़ता है जो खेती में लागत को खासा बढ़ा देता है। पहले भी किसान कुछ समय बाद बीजों को बदलते थे, मगर इतनी जल्दी-जल्दी नही जितना कि अब। ज्यादा अहम बात है कि बीजों की उत्पादकता का क्रमःतर कम होना एक नैसर्गिक तथ्य है जिससे किसान वाकिफ थे। और इसके लिए उन्होने अपनी व्यवस्था बनायी थी। पहले स्तर पर, वे खेत बदलते थे, यानि कि एक ही खेत में वही बीज बार-बार नही लगाते थे और उसके कुछ सालों बाद वे बीजों में बदलाव करते थे। अब समझने वाली बात यह है कि पहले के समय में बीज बदला जाता था मगर उसकी पूरी प्रक्रिया, निर्णय व नियंत्रण किसानों के अपने हाथ में रहती थी, जबकि बीज अब भी बदला जाता है मगर पूरा नियंत्रण कंपनियों के हाथ में आ चुका है। कितनी चतुराई से कंपनियों ने किसानों की ही पद्धति को किसानों के ही हाथ से हथिया कर अपने अत्याधिक मुनाफे का साधन बना दिया।
इसी तरह हम पहले और अब की खेती में फर्क को देख व उसका विवेचन कर सकते हैं और देख सकते हैं कि किसान उत्पादक से अब केवल उपभोक्ता रह गया है, मालिक से सिर्फ अब एक नौकर या कर्मचारी बन चुका है। और हमारी खेती-किसानी जो धरती के संतुलन को भी बनाये रखने का आधार थी, वह अब दोहन व शोषण के जरिए एक व्यापार व व्यवसाय बन चुका है। हमारे अनाज अब नैसर्गिक वरदान नही बल्कि एक बाजार का उत्पाद बन चुके है। किसान जो अन्नदाता था वह अब कंपनियों का गुलाम बन चुका है।
नवांग तन्खे द्वारा चित्रण
क्या आपको अजीब नही लगता या यह बात विचलित नही करती कि किसान ही एकमात्र ऐसा उत्पादक है जो अपने उत्पादन की कीमत तय नही करता, लेकिन कंपनियां जब उन्ही चीजों का उत्पादन करती हैं तो वे ही उनकी कीमतें खुद तय करते हैं। और तय ही नही, बल्कि अपने के हित के अनुरूप बढ़ाते-घटाते हैं। आमतौर पर हम इस फर्क को देखते नही हैं या देख कर नजरअंदाज कर देते हैं।
इधर बहुत सी कोषिषें हो रही है और बहुत सारी संस्थाए इन सवालों से जूझने की कोषिष कर रही हैं। हाल के सालों में जैविक का महत्व बढ़ने से पहाड़ों के उत्पादों की - जो वैसे ही जैविक होते रहे हैं - मांग बढ़ी है और इसने कई किसानों व किसान समूहों तथा किसानों के साथ काम कर रही संस्थाओं को इस ओर मोड़ा है। कुछ समय तक लगा अब हम किसानों और किसानी के उत्थान की बात कर सकेंगे। मगर क्या वास्तव में ऐसा हुआ? नहीं, क्योंकि कुल मिला कर, उन प्रयासों में खेती-किसानी के नैसर्गिक मूल्यों की पुनःस्थापना की जगह, जैविक खेती-किसानी को बाजार का ही स्वरूप देने की सफल कोषिष हुई है। छोटे स्तर पर या छोटे चित्र में तो ये ठीक दिखता है लेकिन बड़े चित्र में ये प्रयास भी कंपनियों की ही गिरफ्त में फंसे रहने का दृष्य बनाती हैं। बाजार की शक्तियों से बाजार की ही शर्तों पर अगर लड़ा जाएगा तो आपकी सफलता कैसे हासिल होगी? क्योंकि बाजार के नियम तो बाजार ही तय करता है और बाजार पर नियंत्रण या प्रभुत्व तो बाजार का ही रहता है, आपका नही।
अंततः किसान जो पहले अपने परिवार व समाज के लिए खेती-किसानी करता था, वह अब सिर्फ बाजार के लिए उत्पादन कर रहा है। और इसका एक प्रतिफल व मानदण्ड यह है, जिसपर आप सभी एक सर्वेक्षण भी कराएं कि कितने किसान परिवारों के बच्चे भी किसानी से जुड़ना चाहते हैं या खुद कितने किसान यह चाहते हैं कि उनके बच्चे भी आगे खेती-किसानी हीं करें।
अगर हम इन मौलिक परिवर्तनों के मूल को समझ सकें तो हम आज खेती में जो भी छोटे-बड़े, स्थानीय या वैष्विक परिवर्तन हो रहे हैं उन सब को ठीक से समझ सकेंगे। और उम्मीद है उस समझ से हम आगे की दिषा अपने लिए ठीक से तय कर सकेंगे।
लेखक का परिचय
बीजू नेगी
बिजू नेगी - लेखक, संपादक, अनुवादक व कार्यकर्ता। विविध स्तरीय रूचि व कार्य, पर गाँधी-विचार व लघु खेती-किसानी मुद्दों तथा जीवन के समाजो-सांस्कृतिक पहलुओं पर केंद्रित। पिछले लगभग चार दशकों से सक्रिय, गैर-औपचारिक व दार्शनिक लोक-संगठन बीज बचाओ आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में एक। साथ ही, गांधी दर्शन व मौलिक विकास चिंतन पर आधारित उनकी किताब "हिन्द स्वराज" से प्रेरित हिन्द स्वराज मंच का संस्थापक।