लद्दाख की जंगली खाद्य वनस्पतियां
भौगोलिक दृष्टि से लद्दाख शक्तिशाली हिमालय के छाया क्षेत्र में है। चरम जलवायु चक्र के साथ उच्च ऊंचाई वाला, लद्दाख का ट्रांस हिमालय क्षेत्र, एक अद्वितीय ठंडा रेगिस्तान है. यह विभिन्न रोचक जीवों का घर है।
कई सौ शताब्दियों से अपनी विशिष्ट संस्कृति, खेती और ग्रामीण जीवन शैली के साथ यह अपेक्षाकृत कुछ अलग प्रकार का आत्मनिर्भर समाज रहा है। स्थानीय लोगों में वनस्पतियों का ज्ञान समृद्ध है, विशेष रूप से खाद्य जंगली वनस्पति की किस्में जिनका प्रयोग अनंत काल से यहां के भोजन में होता रहा है। इन वनस्पतियों में लदाख की ऊंचाई वाले क्षेत्र और विषम मौसम के प्रति अद्वितीय अनुकूलन की क्षमता दिखाई देती है। लोगों के जीवन को दिशा देने में और लदाख की विषम परिस्थिति में लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले उपायों में इन वनस्पतियों का बहुत हाथ है।
फोटो फुंत्सोग डोलमा द्वारा
यह अचरज की बात नहीं कि लद्दाख के कई पारम्परिक व्यंजन इन जंगली वनस्पतियों से तैयार किये जाते हैं। पुराने समय में, समुदायों में ये व्यंजन विशेष अवसरों पर तैयार किये जाते थे. कई भिन्न-भिन्न जंगली वनस्पतियां का इन पारम्परिक व्यंजनों को बनाने में इस्तेमाल होता है। अधिकतर इस्तेमाल होने वाले जंगली खाद्य पौधों में मुख्य हैं : जातसुत, कबरा, शलमागो, हंस / खि-खोल-माँ, शाशो, निगु, अजंगकबरा, कोत्से, लाछु, स्रोलो-मार्पो, स्रोलो-सर्पो, उम्बुक-कोस्नयोत , ज़ीरा-नाकपो, फोलोलिंग, टोमा, सारि, डेमोक, सेपद, सेस्तालुलु, सियाह-मार्पो, चूली और स्तरगा।
खाये जाने वाली जंगली पौधों के उपभोग के बहुत से स्वास्थ्य और आर्थिक लाभ हैं। एक बात तो यह है कि ये अन्य उगाये गए पौधों जैसे नहीं होते। यह जंगली पौधे पूरी तरह प्राकृतिक होते हैं और इन्हें किसी नुक्सान वाली खाद, दवाई या कीटनाशक या देखभाल की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह अपने आप ही उगते हैं। दूसरी बात यह है कि चूँकि यह बहुत ऊंचाई और ठंडे शुष्क मौसम के अनुकूल होते हैं, तो इनमें अन्य प्रकार के विभिन्न पोषक तत्व भी होते हैं, पनपते हैं, जो इन्हें कठिन मौसम, कीड़ों और हानिकारक सूक्ष्म जीवों से अपने को बंचाने में मदद करते हैं। इन अन्य पोषक तत्वों के कारण इनका औषधीय महत्व बहुत अधिक है, साथ ही स्वास्थ्य दृष्टि से भी यह बहुत लाभकारी हैं।
खाना पकाने में इन पौधों का प्रयोग बहुत अलग-अलग प्रकार से किया जाता है। स्कोतसे, रसगोकपा और लुक्सगोकपा और कॉनयोत मुख्यतः सुगंध वाले मसाले हैं और इनका प्रयोग विभिन्न व्यंजनों में सुगंध के लिए किया जाता है। एलियम प्रजाति के पौधे के कोमल अंकुरों को एकत्र कर पीसकर - सुखाकर स्थानीय व्यंजन जैसे तंग्थुर, सँकितिग, बगथुक और स्थानीय अचार में स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसी तरह कोस्नयोत और ज़ीरा-नाक्पो के बीजों का भी पारम्परिक पाक-विधि, जैसे तेन-तेन, में एक मसाले के रूप में इस्तेमाल होता है। शांगशो की पत्तियां सँकितिग को पकाने के लिएआवश्यक हैं जो कई सब्जियों और सत्तू (भुना जौ का आटा) से बनने वाला स्थानीय व्यंजन है। काबरा की कोंपल और नरम अंकुर को तल कर खाया जाता है, जिसे पश्चिमी लद्दाख के शम क्षेत्र में काबरा-सोत्मा कहते हैं। फोलोलिंग की पत्तियों को पीसकर चटनी बनती है और दही में भी स्वाद के लिए मिलाकर खाया जाता है, जबकि शलमागो की पत्तियों को दही या छाछ में मिलाकर तंग्थुर तैयार किया जाता है।
खाद्य पौधे; पीयूष शेखसरिया द्वारा चित्रण
स्रोलो-मार्पो और स्रोलो-सर्पो के नरम अंकुरों को बहती जल धारा में अच्छे से धोकर दही में मिलाकर श्रोलो-तंग्थुर तैयार किया जाता है। जातसुत (बिच्छू-बूटी) की हरी पत्तियों को इकट्ठा करके उस से जातसुत-थुक्पा बनाया जाता है, जबकि खि-खोल-माँ की कोपलों से थुक्पा बनाया जाता है। पुराने समय में सेस्तालुलु के खाए जा सकने वाले फलों को इकट्ठा करके सुखाकर चूर्ण बनता था। फिर उसे सत्तू में मिलाकर खाया जाता था। इसी तरह सारि के बीज भी सुखाकर पीसकर उनका आटा तैयार किया जाता था। सेपद के पके फल, तोमा की जड़ें और लाछु की कोंपल को भी ऐसे ही सीधे पौधों से तोड़कर खाया जाता था।
फोटो फुंत्सोग डोलमा द्वारा
खाए जाने वाली वनस्पति/पौधों के प्रयोग में कमी
लद्दाख पिछले कुछ दशकों में कई सारे बदलावों का साक्षी रहा है। एक समय था जब लद्दाखी लोग अपनी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जंगली वनस्पतियों पर बहुत अधिक निर्भर थे। लोग उत्सुकता से बसंत और गर्मी के मौसम का इंतजार करते थे जब जंगली खाद्य वनस्पति का संग्रह चरम पर होता था। हालांकि यह संग्रह हमेशा व्यक्तिगत उपभोग के लिए होता था और कभी भी व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए नहीं होता था।
स्कूल के बाद बच्चों का जंगली खाद्य पौधों, जैसे, कबरा, शलमागो, स्रोलो, जातसुत, खि-खोल-मा, उम्बुक, इत्यादि को इकट्ठा करने के लिए पहाड़ों या खेतों में जाना एक आम बात थी। आज के समय में इन जंगली संसाधनों की पहचान और एकत्र करने की कला बहुत ही कम लोगों के पास है। यह पारम्परिक ज्ञान इतनी तेज़ी से ख़त्म हो रहा है कि सम्भवतः जल्दी ही विलुप्त हो जायेगा।
इस पारम्परिक पहचान के ख़त्म होने और पारम्परिक पौधों पर आधारित भोजन से विमुखता के कई कारण हैं। दो मुख्य कारक हैं - लद्दाख़ में पर्यटन उद्योग का बढ़ना और बागवानी आधारित सब्जियों का आगमन। पिछले कुछ दशकों में लद्दाख में कई खेती वाले पौधों के आगमन से बागवानी, वानिकी और कृषि में अचानक वृद्धि दिख रही है. इसके अलावा पर्यटकों के प्रवाह से पश्चिमी व्यंजनों का प्रचलन बढ़ा है जिस के चलते जंगली खाद्य पौधों का सांस्कृतिक और आर्थिक महत्त्व घट गया है। इसने लद्दाख के पारंपरिक ज्ञान और जंगली पौधों के उपयोग को भी नष्ट कर दिया है क्योंकि स्थानीय लोग अब पारम्परिक के बजाय पश्चिमी व्यंजनों को पसंद करने लगे हैं। यह
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी युवा पीढ़ी, जंगली खाद्य पौधों और उनसे बनने वाले पारम्परिक व्यंजनों की विधि के इस तेज़ी से खत्म होते ज्ञान से चिंतित नहीं है। उनमें से अधिकांश गैर स्थानीय व्यंजनों और सामग्रियों के बारे में जानने के लिए अधिक उत्सुक हैं।
पारम्परिक ज्ञान सहेजना आवश्यक
जंगली वनस्पति और उनके व्यंजनों की पाक-विधि को संरक्षित करने की तत्काल आवश्यकता है। लोक-ज्ञान, जंगली वनस्पति और इनका उपयोग जिसमें सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराएं भी शामिल हैं, हमारे पारम्परिक ज्ञान का हिस्सा हैं। इन परंपराओं और पौधों के पारम्परिक प्रयोग को पुनर्जीवित करने से लद्दाख की विरासत और इसके अनोखे लोक-ज्ञान में झाँकने का अवसर मिलेगा। और तो और, इन देसी जंगली खाद्य पौधों का उपभोग उगाई गई सब्जियों की तुलना में स्वास्थ्य के लिए अधिक लाभदायक है। कृषि से उगाई गयी फसल की तुलना में जंगली पौधे स्वाभाविक रूप से अधिक पौष्टिक होते हैं, प्राकृतिक रूप से कीट प्रतिरोधी होते हैं और सबसे महत्वपूर्ण है कि कम दूषित भी और इस प्रकार शुद्ध जैविक होते हैं। इसके विपरीत खेती से प्राप्त होने वाली सब्जियां उर्वरकों और कीटनाशकों के जहरीले रसायनों से दूषित होती हैं जो कैंसर जैसी गंभीर बीमारीयां का कारण बनती हैं।
फोटो फुंत्सोग डोलमा द्वारा
यदि हमें जंगली वनस्पतियों की खपत के जनजातीय ज्ञान को संरक्षित करना है, तो समुदाय के सदस्यों और प्रत्येक घर के बुजुर्गों को युवाओं को जंगली खाद्य वनस्पति के भोजन में प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, साथ ही साथ जातीय ज्ञान के इस पहलु के प्रति सबका जागरूक होना भी आवश्यक है। इसके साथ ही स्थानीय घरों, होटलों, रेस्त्रां और खुदरा विक्रेताओं को भी पारंपरिक विधियों और व्यंजनों की पेशकश करनी चाहिए। स्थानीय सरकार को स्थान की विरासत के इस पहलू के प्रति रूचि पैदा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए और ज्ञान के इस भंडार को संरक्षित करने के लिए जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। लद्दाखी भोजन में पोषक तत्वों की कमी के लिए वैकल्पिक खाद्य संसाधन के रूप में जंगली वनस्पति की खपत को प्रोत्साहित करना होगा और इस अनूठी विरासत के संरक्षण का प्रयास करना होगा. वनस्पतियों का संग्रहण और इन पर आधारित पारम्परिक जैविक खाद्य पदार्थ, युवाओं के लिए उद्यम के अवसर पैदा कर सकते हैं और इससे स्थानीय किसानों की आय भी बढ़ सकती है. हालांकि, संग्रह टिकाऊ हो और जिम्मेदारी से प्रबंधन हो इसके लिए हमें जंगली जैविक विविधता के संरक्षण के लिए भी गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है।
लेखिका का परिचय
फुंत्सोग डोलमा
फुंत्सोग डोलमा भेड़ पालन विभाग, लेह, में झुण्ड पर्यवेक्षक के पद पर कार्यरत हैं। वे दिल से वनस्पति प्रेमी हैं और सं. 2021 में प्रकाशित किताब, लदाख के पौधे, क्षेत्र की सामान्य वनस्पति की विस्तृत मार्गदर्शिका की श-लेखिका भी हैं। फुंत्सोग को सं. 2021 में सैंक्चुअरी एशिया, जिनका काम सम्पूर्ण भारत में जमीनी स्तर पर हो रहे संरक्षण के काम को सहयोग करना है, द्वारा मड ऑफ़ द बूट्स सम्मान से भी सम्मानित किया गया था।