बदलते जलवायु की अनुगामी
हिमाचल प्रदेश के उत्तर पश्चिम भाग में स्थित भरमौर और लाहौल नामक मिथकीय क्षेत्र में, हर साल एक सामयिक घटना घटित है जो की स्थानीय संस्कृति और प्रकृति के बीच एक अनोखे सामंजस्य को दर्शाती है। गद्दी पाल के इस पारंपरिक गढ़ में, इस समुदाय को, सैमी-नोमैडिक, ट्रांसह्युमैंट पास्टोरैलिस्ट या एग्रो पास्टोरैलिस्ट कहा जाता है। गद्दी परिवारों के अक्सर पुरूष गर्मियों (अप्रैल) के शुरुआत में, अपनी भेड़ बकरी के झुंड को इकट्ठा कर एक प्रवासी यात्रा पर चल पड़ते हैं, और इस झुंड को ऊंचाई वाले क्षेत्रों के चरागाहों तक ले जातें हैं। निरंकुश फैले इन चरागाहों को, जिन्हें अंग्रेजी में "अल्पाइन मेडोज" कहा जाता है, उन्हें गद्दी पाल 'धार' कहकर पुकारते हैं। यह सामयिक यात्रा बहुत से स्तर पर अविस्मरणीय है - इससे गद्दी परिवार की अर्थव्यवस्था को सहारा मिलता है, क्योंकि उसे कृषि पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं रहना पड़ता। इसके अलावा गद्दियों के झुंड, उन जुते हुए खेतों को खाद भी मुहैया कराते हैं, जिनसे होकर वे गुजर रहे होते हैं, और बदले में इन्हें आहार और रूकने की जगह मिलती है। ये विनिमय प्रणाली आज भी जारी है। और गद्दी द्वारा इस प्रकार की प्रथा अपनाने के कारण उन्हें अल्पाइन धार पर चराई के लिए अनुचित दबाव डाले बिना कम गुणवत्ता वाले चरागाहों पे निर्भर नहीं रहना पड़ता है।
गद्दी पाल जब कांगड़ा घाटी के कम ऊंचाई वाले इलाकों और पठानकोट के मैदानों से अपनी यात्रा शुरू करते हैं, तब कई कस्बों और गांवों से गुजरते हैं। ये लोग धौलाधार पहाड़ी श्रृंखला को पार करके चम्बा जिले की ओर बढ़ते हैं, और उत्तर भीतरी हिमालय में मौजूद ऊंचाई वाले चरागाहों की ओर चले जाते हैं। इस मुश्किल यात्रा में इनके साथ इनके मवेशी होते हैं, जिन्हें ये ‘धण’ कहते हैं हिंदी में जिस शब्द का अर्थ दौलत या पैसा होता है। भेड़ों और बकरियों का झुंड, इस समुदाय के लिए आमदनी का एक लचीला और निरंतर स्रोत होता है, क्योंकि जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के मालिक होने के कारण इन्हें खेती से ज्यादा आय नहीं हो पाती। तो ये झुंड इन्हें मांस, दूध, फ्लीस और ऊन मुहैया कराते हैं। गद्दी भेड़ों से जो ऊन मिलती है, उससे गर्म कपड़े बनाए जाते हैं, और ये ऊन उस बाजार में बढ़िया क्वालिटी की मानी जाती है जहां गुणवत्ता के आधार पर ही ऊन का दाम तय होता है ।
हिमाचल प्रदेश स्टेट वूल फैडरेशन (हिमाचल प्रदेश राज्य ऊन महासंघ) की वैबसाइट पर सरकार द्वारा दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी) को दर्शाया गया है, जो वह कटे हुए ऊन के लिए देती है। जो ऊन जनवरी-फरवरी के सर्दी वाले महीनों में काटी जाती है, उसके लिए प्रति किलो सबसे कम दाम दिए जाते हैं, और जो ऊन पतझड़ में (सितम्बर या अक्टूबर में) काटी जाती है, उसके लिए सबसे ज्यादा दाम दिए जाते हैं, क्यूंकि तब भेड़ों के झुंड ऊंचाई पर स्थित चरागाहों से उच्च गुणवत्ता वाली घास चरके नीचे वापिस आए होते हैं। मैंने जिन गद्दियों का इंटरव्यू लिया, उन्होंने इसे 'ए' ग्रेड ऊन बताया। उनका कहना था कि ऊंचाई वाले चरागाहों में औषधीय जड़ी-बूटियाँ, झाड़ियाँ और बढ़िया घास इन जीवों को खाने को मिलती है, जिनमें ज्यादा पौष्टिकता होती है, और इसी वजह से उनकी ऊन पतझड़ में ज्यादा अच्छी और घनी होती है।
कुगती गांव के उत्तर-पूर्व में धार में चरने के बाद भेड़ और बकरी के झुंड लौटते हैं; फोटो आभार वीरेंद्र माथुर
इन चरागाहों तक पहुंचने के सफर से भी ज्यादा मुश्किल है ऊंचाई पर स्थित धार पर रहना होता है। मैंने एक गद्दी से पूछा कि वहाँं जिंदा रहने के लिए सबसे महत्वपूर्ण महारत क्या होती है, तो उसने बताया, "किसी जानवर के साथ रहने के लिए, आपको जानवर ही बनना पड़ता है।" इससे ऊंचाई वाले चरागाहों में जीवन से जुड़ी मुश्किलों का अनुमान लगता है। जब गद्दी इन चरागाहों में पहुंचते हैं, तो बर्फ पिघल रही होती है, और उसके नीचे इन भेड़ों और बकरियों के झुंड के लिए भरपूर घास उग रही होती है। ऊंचाई पर स्थित धार में ये चरागाह क्षितिज तक फैले नज़र आते हैं ,ऐसा प्रतीत होता है की दूर तक फैले यह विशाल कालीन धीरे-धीरे रंग बदल कर हरे हो रहे हों। यहाँ इन्हें अपने धण के दिशा-निर्देशन लिए कोई खास चिंता नहीं होती, असली चुनौती पर अपने इन जानवरों को मुश्किल परिस्थितियों में सुरक्षित रखने की होतो है। मवेशी और गद्दी एक दुसरे पर निर्भर होते हैं। गद्दी अपने परिवार से दूर होने के कारण इन्हें ही अपना परिवार मानते हैं। देखरेख से जुड़े इस रिश्ते का गहरा संबंध ऊन से है। और ये रिश्ता पैसे से आगे बढ़ते हुए भावनात्मक महत्व का हो जाता है।
चरवाहों को ऊन से पैसे मिलते हैं, और यही ऊन फिर से इन गद्दियों के सफर के साथ कभी इनके कम्बल, तो कभी शॉल की शक्ल में नजर आती है। ये काटी हुई ऊन का कुछ हिस्सा अपने लिए रखते हैं, और इसका इस्तेमाल अपनी पारंपरिक पोशाक, शाॅल और कम्बल बनाने के लिए करते हैं जो अकड़ाने वाली ठंड से इन्हें बचाए रखती है। जब कोई भेड़ और बकरी का मेमना पैदा होता है, तो उसे ऐसे ही कम्बल में लपेट कर गद्दियों के तम्बू में रखा जाता है, और ऊंचाई वाले इन चरागाहों में लम्बे सफर के दौरान इन मेमनों को कम्बलों के अंदर लपेट कर ले जाया जाता है। इस परिवार में हर सदस्य की अहमियत है। और कभी-कभी गद्दी अपने झुंड को बचाने के लिए अपनी जान भी दांव पर लगा देते हैं। दो अलग-अलग घटनाओं में, चरवाहों का एक समूह रात में अपनी भटकी हुई बकरियों को काले भालू से बचाने गया, और एक दिन थापु नाम का नौसिखिया चरवाहा एक ग्लेशियर की धारा में कूदा और मोटी हिमनद परत को तोड़ कर उसमें गिरी हुई एक भेड़ और एक मेमने को बचाया। उसका कहना था कि किसी चरवाहे को अपने झुंड की हर भेड़-बकरी की जान बचानी होती है, इससे उसके मालिक को भरोसा हो जाता है कि वो कितना विश्वास के योग्य है। इसमें कोई शक नहीं कि चरवाहे प्रकृति के मुश्किल मिजाज के हिसाब से ढल गए हैं, लेकिन क्या कठिन परिस्थितियों में डेट रहने की उनकी क्षमता, हिमालय के अंदुरूनी हिस्सों में हो रहे जलवायु संबंधी बदलावों के प्रभाव को झेलने लायक खूबी इन्हें देगी?
कई मायनों में गद्दी और उसके झुंड की जिन्दगी हिमालय के चरागाहों में होने वाले मौसमी बदलावों के साथ गहराई से जुड़ी होती है। इन चरवाहों को शायद जलवायु परिवर्तन शब्द मालूम न हो, पर ये समझ रहे हैं कि गर्मियों के इनके इस आशियाने में बदलाव तो आ रहा है। बारिश का विन्यास अनियमित हो गया है और यह गद्दी समुदायों की रोजी-रोटी पर नकारात्मक असर डाल सकता है। ज्यादा बारिश से भी मवेशियों की मृत्यु दर बढ़ सकती है, क्योंकि ज्यादा नम वातावरण में ये कई बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। और अगर बारिश कम हो तो ऊंचाई वाले चरागाहों में घास और जड़ी-बूटियों की बढ़वार में कमी आ जाती है, जैसे कि पिछले साल हुआ।
हालात खुर वाले बड़े पहाड़ी जीवों की वजह से और खराब हो रहे हैं, जो इन भेड़ बकरियों के लिए जरूरी पोषक घास खा जाते हैं। इन लोगों ने मुझे बताया कि चुर कहलाने वाले जीव से भी परेशानी रहती है। हिमालय क्षेत्र में इसे आमतौर पर 'ड्ज़ो' कहा जाता है जो याक और गाय की एक संकर नस्ल है। घास खाने वाले इन विशाल जीवों को ऊंचे हिमालय में रहने वाले ग्रामीण खेती के लिए पालते हैं। ये विशाल जीव ऊंचाई वाले चरागाहों में, हिमालयन आइबैक्स और हिमालयन ताहर, खच्चरों और घोड़ों जैसे खुर वाले जीवों के साथ चरते हैं। बड़े शाकाहारी जीव ताजा उगी घास खा जाते हैं, जिससे भेड़ों और बकरियों के लिए पर्याप्त घास नहीं बचती। इसी तरह मौसम के मिजाज में बदलाव आने से भी इन चरागाहों में चराई की अवधि छोटी हो सकती है, इससे ताजा घास की बढ़वार पर असर पड़ता है, और लम्बी अवधि में इन चरागाहों की उत्पादकता भी घटती है। पोषण संबंधी गुणवत्ता घटने से भेड़ों की ऊन की क्वालिटी भी प्रभावित होती है।
सुभाष भाई और सोनू भाई भेड़ पर से ऊन काट रहे हैं। इन भेड़ों पर से ऊन एक वर्ष में तीन बार काटी जाती है, और जबकि कुछ चरवाहों इन कैंची का उपयोग करते हैं, अन्य चरवाहे ऊन की छंटाई के लिए ट्रिमर का उपयोग करते हैं; फोटो आभार वीरेंद्र माथुर
आज प्राकृतिक ऊन के बाजार को सिंथैटिक ऊन से जबर्दस्त मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है, और इससे गद्दियों के लिए इस बाजार में टिके रह पाना मुश्किल हो गया है। ऊन के पारंपरिक इस्तेमाल में कमी आती जा रही है, इसकी आंशिक वजह ये है कि इस काम से संबंधित ज्ञान एक से दूसरी पीढ़ी तक नहीं पहुंच पा रहा है, साथ ही लोगों को शहरों में रहना ज्यादा भा रहा है, तो कारोबारी और शिल्पकार भी आयातित ऊन इस्तेमाल करना बेहतर समझते हैं। इन बदलावों को ध्यान में रखते हुए, अगर प्रबंधन संबंधी सही प्रणालियाँ अपनाई जायें हैं, तो उच्च हिमालय क्षेत्र में पारंपरिक कृषि-ग्रामीण जीवन प्रणाली बची रह सकती है। इस काम से जुड़े गद्दी चरवाहे एक सांस्कृतिक विनिमय का गतिशील माध्यम हैं, और अपने संसाधनों के विनिमय के जरिये कृषि से जुड़े विभिन्न समुदायों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करते हैं। इस प्रकार, हिमालय में पारगमन में हो रही कमी ऊंचाई वाले समुदायों में पोषक चक्र के प्राकृतिक चक्रों के नुकसान पर परस्पर प्रभाव डाल रही है और संभवतः इसके दुष्प्रभाव का अनुप्रवाह हमें सहना पड़ सकता है।
लेखक के बारे में
वीरेंद्र माथुर
वीरेंद्र माथुर टोरोंटो विश्वविद्यालय से विकासवादी नृविज्ञान में पीएचडी कर रहे हैं। वह प्रशिक्षण द्वारा एक प्राइमेटोलॉजिस्ट है और अपने डॉक्टरेट के काम के लिए हिमालयन लंगूर की अपने स्थानिक अवलोकन और एक इलाके में संचार की रणनीतियों का अध्ययन करने में रुचि रखते हैं। कुगती वन्यजीव अभयारण्य में अपने फील्डवर्क के भाग के रूप में, वह भरमौर के कुगती गांव में गद्दी समुदाय के साथ भी मेलजोल रखते रहे हैं और इन चरवाहों के अनुभवों के बारे में अधिक जानने का प्रयास कर रहे हैं। वीरेंद्र हिमालय में रह रहे समुदायों और संस्कृति के प्रकृति के साथ संबंध को समझने में और हिमालय की प्राकृतवास के संरक्षण के लिए इन्ही लोकल समुदायों को भागिदार बना एक सहयोगी ढांचा विकसित करने के लिए भी उत्सुक हैं।
आभार:
वीरेंद्र अपने इस कार्य के लिए वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट को धन्यवाद् देना चाहतें है जिनके स्मॉल ग्रांट्स प्रोग्राम ने उनके कुगती गाँव में किये गए फील्डवर्क के लिए अनुदान राशि प्रदान की। वह विनम्र और प्यारे गद्दी समुदाय का तहेदिल से आभार व्यक्त करते हैं जिनके उदारवादी, हंसमुख, जीवंत, और मददगार स्वभाव ने उन्हें हमेशा घर जैसा ही महसूस कराया।