लोसर: पशु दिवस
मुझे लगता है कि वास्तव में मैं किसी भी तरह के त्योहारों में सबसे कम उत्साहित और सबसे नीरस व्यक्ति होती हूं। मैं सभा, नृत्य, आतिशबाजी या किसी अन्य चीजों को पसंद नहीं करती जिसमें अजनबियों के साथ बात करना शामिल हो। यह अधिकतर मेरे अंतर्मुखी वयक्तित्वता के कारण हो सकता है या कुछ ये मेरे परवरिश के कारण भी। मैं हालांकि दोनों के बारे में ही निश्चित नहीं हूँ। लेकिन मुझे किसी भी त्योहार को दिल से इतना मनाने का मन नहीं करता जितना मेरे मित्रों का करता है।
मैं लद्दाख के एक छोटे से खानाबदोश गाँव से हूँ जहाँ सभी की आजीविका पशुओं पर निर्भर है। लगभग हर घर में कुछ बकरियां, भेड़, घोड़े और याक होते हैं। ये जानवर न केवल हमारी आय का साधन हैं, बल्कि भोजन प्राप्त करने, पानी लाने, यात्रा करने और सबसे महत्वपूर्ण रूप से सुख और मित्रता का स्रोत होते हैं। चूंकि हमारा जीवन इन जानवरों के पालन-पोषण के इर्द-गिर्द घूमता है और पूरे साल बिजली, पानी और आसपास एक भी दुकान न होने के कारण हमारे पास उत्सव के लिए बहुत कम समय रहता है। लोसर-तिब्बत का नया साल और ठुंकर ड्युचेन - परम पावन दलाई लामा का जन्मदिन हमारे दो मुख्य त्योहार हैं जिन्हें पूरा गांव मिलकर मनाता है। इसलिए हमारे गाँव का हर व्यक्ति इन दो दिनों का बच्चे की तरह इंतज़ार करता है, हालाँकि कारण अलग अलग हो सकते हैं।
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फोटो साभार: नामग्याल ल्हामो
मेरी लोसर और ठुंकर की सबसे प्यारी यादें भी मेरे चचेरे भाइयों की तुलना में काफी नीरस हैं। लेकिन इन दिनों, मैं चाहे कितने ही शहरी त्यौहार देखूँ, जो समारोह मैंने अपने बचपन में देखे हैं, उनकी तुलना मैं यह कुछ भी नहीं। मुझे बचपन का एक किस्सा आज भी याद है। यह लोसर का तीसरा दिन था। मेरे पिताजी मेरे पास आए और मेरे सिर को प्यार से सहलाया।"तुम्हारे चुने हुए मेमने का जीवन बख़्श दिया जायेगा”, उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा। खुशी बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे। यह वाकया मेरे दिल में स्पष्टतः से बस गया।
मेरे गाँव में, लोसर या ठुंकर के तीसरे दिन घरों मे पिता सबसे व्यस्त होते हैं। वे, भूमि देवता और अन्य देवताओं को खुश करने के लिए सुबह जल्दी उठकर प्रार्थना करते हैं। ये देवता पूर्वजों के अनुसार हमारी भूमि के सच्चे मालिक माने जाते हैं। इसके बाद वे पशु घर जाते हैं और यह मेरा सबसे ज़्यादा प्रतीक्षित क्षण होता है। पशु घर मे जानवरों को बेतरतीब ढंग से चुना जाता है और उनका जीवन बख्श दिया जाता है। अर्थात हमें उन्हें क़साईख़ाने में भेजने या उनका दूध निकालने की अनुमति नहीं होती और उनको उनकी पूरी उम्र तक प्यार और देखभाल से रखा जाता है, जो हर जानवर को वैसे भी प्राप्त होता है, जब तक कि वे मर नहीं जाते। मेरे भाई-बहन और मैं हमेशा पिताजी के ख़ुशी से गले लगते थे जब वह जानवरों की जान बक्श कर बाड़े से निकलते थे। इस परंपरा के माध्यम से हम अपनी आजीविका के लिए जानवरों के बलिदान का सम्मान करते हैं और परम पावन (दलाई लामा) के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करते हैं। जानवरों के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार और करुणा के संदेश को आगे बढ़ाने के लिए भी इस प्रथा को मान्यता दी जाती।
मेरा पूरा परिवार अंततः अपने अस्तित्व के लिए जानवरों को पीड़ित देखने की क्षमता न रख पाने की वजह से अपने खानाबदोश जीवन को पीछे छोड़ते हुए पास के एक शहर में चले गए। लेकिन, आज भी जब पीछे देखती हूँ तो लगता है कि यही वह जगह है जहाँ मेरा जानवरों के प्रति लगाव बढ़ा। आज, भले ही हम पूरी तरह अलग जीवन जीते हों, परन्तु मेरे माता पिता सुनिश्चित करते हैं की हम हर साल लोसर पर एक जानवर की जान बख्शें। मेरे लिए त्योहार पर एक सच्ची दयालुता के इस भाव से बढ़कर कुछ भी नहीं है। इस तरह में इन दो दिनों को जानवरों का त्योहार मनाती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि मैं इस परंपरा को अपने जीवन में भी आगे बढ़ाऊंगी।
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फोटो साभार: नामग्याल ल्हामो
लेखक के बारे में

नामग्याल ल्हामो
नामग्याल ल्हामो वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहती हैं। वह एक तिब्बती शरणार्थी हैं जिनका जन्म लद्दाख के एक छोटे से खानाबदोश गाँव में हुआ था जहाँ वह अब एक तिब्बती चिकित्सक के रूप में काम करती हैं। उन्हें पढ़ना, लिखना, संगीत सुनना और प्रकृति के छाँव में रहना पसंद है।