खेती-बाड़ी में परिवर्तन: हिमाचल की लाहौल घाटी से एक कहानी
फोटो साभार: विक्रम कटोच
मैं गुमरंग से हूँ - हिमाचल की लाहौल घाटी का एक छोटा सा गाँव। यहाँ करीब 22 घर-परिवार हैं और हमारा मूख्य काम है खेती-बाड़ी। मैं 17 से अधिक वर्षों से खेती कर रहा हूँ और इन वर्षों में खेती से जुड़ी कई चीज़े बदली है जैसे कि आहार, जीविका, खेती करने के तरीके, और संसाधनों का उपयोग। यहाँ का समुदाय खेती, पशुपालन, तथा कृषि पशुचारण कई अरसो से करता आ रहा है पर पिछले दशकों में इनमें काफी बदलाव आए हैं। खेती-बाड़ी के संपूर्ण तरीके में कई परिवर्तन हुए हैं।
फोटो साभार: छेरिंग गाजी लाहौल
मुझे याद है मैं जब छोटा था, तब हम याक या बैलों की मदद से खेत जोतते थे। इस तरह के पारम्परिक तरीकों में कम से कम दो व्यक्ति एवं दो याक लगते थे, परन्तु अब मशीनों के कारण यही काम एक व्यक्ति भी कर सकता है। करीब 30-40 साल पहले हम लोग कठ्ठु/कथु, जौ, काला मटर, ला्हौल में उगाते थे जो हमा्री आवश्यकताओं के लिये पर्याप्त था। परन्तु वर्तमान आर्थिक परिवेश में सेब, हरा मटर, और आलू जैसे नकदी फसलें उगाकर भी जीविका अर्जन करना मुश्किल होता जा रहा है। अब हम केवल खेती पर निर्भर नहीं रह सकते। मौसम और रोगों से भी जुझने की शक्ति फसलों में कम होती जा रही है।
लाहौल में ऐसे कई गाँव है जो ग्लेसियर के पानी अथवा बरफ पिघलने से बने प्राकृतिक स्त्रोत के पानी पर निर्भर हैं। लोग ग्लेसियर के पिघलने का इंतज़ार करते हैं और उस पानी को इकट्ठा कर के अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उपयोग करते हैं। पुराने समय में जब पानी बहुतायात में था हम हाथ से ही मिट्टी खोदकर नहरे-नाले बना लेते थे और खेतों तक पानी पहुँचाते थे। ऐसे हाथ से बने नालों को कुल कहा जाता है और हम इनके द्वारा सीचाँई भी करते थे और इसी पानी का घरों में भी इस्तेमाल करते थे। परन्तु मौसम के बदलाव के कारण और बढ़ती ज़रुरतों के कारण ग्लेसियर का पानी अब कम पड़ने लगा है। कभी-कभी तो हमें पम्प द्वारा भी नदी से पानी खींचना पड़ता है। ड्रिप और स्प्रिन्कलर के कारण र्सीचाँई के लिये एवं रोज़मर्रा के उपयोग के लिये पानी अब आसानी से मिलने लगा है पर प्राकृतिक स्त्रोत सूखने लगे हैं और हमारे कुलों में भी अब कम पानी रहता है। ड्रिप और स्प्रिन्कलर कम पानी का उपयोग तो करते है पर मैंने पाया कि पौधों को बार-बार सींचने की आवश्यकता होती है (सप्ता्ह में 2-3 बार) क्योंकि पानी मिट्टी की निचले स्तर तक नहीं पहुँचता।
फोटो साभार: छेरिंग गाजी लाहौल
सालों पहले, हर परिवार के पास मवेशी हुआ करते थे जो खेतों के लिए अच्छे खाद का ज़रिया भी थे। बहुत से परिवारों ने अब अपने मवेशी बेच दिये है। अब गांव में गाय-बैल मुश्किल से नज़र आते है। इस कारण अब खाद भी कम है और खेतों की उपज भी। नकदी फसलें जैसे हरा मटर, पत्तागोभी, और बाहर की फसलें जैसे ब्रॉकोली जो आजकल बहुत से किसान उगा रहे हैं, इन्हें ज़्यादा देखभाल की आवश्यकता होती है जिसके कारन लोग युरिया का उपयोग करने लगे हैं। इस प्रकार के खाद खेतों को नुकसान पहुँचाते हैं। अत्याधिक उपयोग से मिट्टी की संरचना पर असर पडता है व कीटों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। कई बार तो इसका असर आसपास के खेतो पर भी पड़ता है जहाँ ऑर्गेनिक खेती की जा रही हो।
मैं आशा करता हूँ कि हमारा समुदाय इन परिवर्तनों को और गहराई से समझे और भविष्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसे समाधान खोजे जो नुकसान ना पहुँचाएँ।
लेखक के बारे में
छेरिंग गाजी लाहौल
छेरिंग गाजी लाहौल, हिमाचल प्रदेश के गुमरंग गाँव से हैं। वे 17 से भी अधिक वर्षों से खेती कर रहे हैं। गाजी अपने खेत में हरा मटर, आलू व जौ उगाते हैं।