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छुर-पोन का उत्सव

मैं छोटी बच्ची थी जब मैं पहली बार साबु गई। इस स्कूल पिकनिक पर साबु की हरियाली ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया। मेरा जन्म और पालन पोषण चोगल्मसर- लेह के एक छोटे से प्रांत में हुआ, जहाँ पत्थर की इमारतों, भीड़भाड़ और विरल वनस्पति होने के कारण मुझे यही लगता था की लद्दाख़ के सारे गाँव इसी तरह सूखे, धुलभरे और बंजर होंगे। इसलिए ये हरिभरि धरती का टुकड़ा दिखना अविश्वसनीय था। मेरी दिलचस्पी लद्दाख़ में पुनः जागृत तब हुई जब मैंने बीस साल की उम्र में पहली बार अज्ञात स्थानों को खोजना शुरू किया और पाया कि यहाँ कई ऐसी अनूठी सामाजिक सांस्कृतिक प्रथाएं हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में जीवन को बनाए रखा है।

लेह से कुछ ही किलोमीटर दूर, गौर से देखने पर भूमि उपयोग में परिवर्तन दिख जाता है। साबु (सा-फुक तिब्बत में), पारम्परिक रूप से पहाड़ की तलहट्टी में पाया जाने वाला आंतरिक चारागाह होता है। यहाँ भरपूर मात्रा में जल संसाधन और हरियाली है। साबु गांव में पर्यटन का अपेक्षाकृत अभाव होने के कारण यहाँ के लोग अभी भी पारम्परिक तौर से खेती करते है जो की पूरी तरह से गंग-छू (हिमनद का पिघला हुआ पानी) और छू-मिग (प्राकृतिक झरने) पर निर्भर है। हिमनद से निकटता होने के कारण इस क्षेत्र में पहाड़ी घास के मैदान हैं और विविध तरह की खेती होती है। लेकिन लेह ओर साबु में मुख्य अंतर मात्र भूमि उपयोग से कहीं अधिक है। लद्दाख़ की ग्रामीण भूमि स्थानीय पारम्परिक प्रणाली और तौर तरीक़े द्वारा शासित है जो की वास्तव में वंहा रहने वाले लोगों के जीवन से जुड़ी है। हालांकी, आसपास के इलाक़ों में कुछ दशकों से काफी बदलाव आया है, पर साबु में, जो ५०० लोगों का गाँव है, कुछ ख़ास नहीं बदला। उनमें से एक आकर्षक परम्परा जो आज भी जीवित है वो है जल नेता के चयन की प्रणाली। जल नेता वह होता है जो जल संसाधनों को नियंत्रित करने का कार्य करता है। जल प्रबंधन के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा में मैंने एक स्थानीय कृषक से बात की जिन्होंने मेरे साथ छुर-पोन की कहानी साझा की।

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साबू गांव, फोटो साभार: दवा डोलमा, लेह

जल सबसे कीमती संसाधन है और छुर-पोन चुनाव इस गाँव के पारम्परिक त्योहारों का अनिवार्य हिस्सा है। ‘‘छु’’ का अर्थ है जल और ‘‘पोन’’ का अर्थ है नेता। छुर-पोन एक अलग तरह की जल प्रबंधन प्रणाली है जो जल संसाधनों के स्थानीय शासन, रखरखाव और वितरण को सुनिश्चित करती है। लघु खेती अवधि के साथ अधिक ऊंचाई और ठंडे शुष्क क्षेत्र में स्थित होने के कारण, लोगों ने कम से कम संघर्ष के साथ अपने सीमित संसाधनों के उपयोग के लिए स्थानीय प्रणालियाँ तैयार की हैं। किसी भी सामाजिक संस्था की तरह ही छुर-पोन प्रथा भी साबु में किसान समुदायों को अपनी भूमि, जल संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करने के लिए और अधिक कुशलता से लाभ लेने में सक्षम बनाती है। छुर-पोन वार्षिक तौर पर कृषि मौसम की शुरुआत में नियुक्त किया जाता है और साबु मुख्य रूप से कृषि समाज होने के नाते इस प्रथा को काफी महत्व देता है।

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फोटो साभार: दवा डोलमा, लेह

ऐतिहासिक रूप से, हर गाँव मे सर्वसम्मति से एक सम्मानित व्यक्ति को चुना जाता था जिन्हें जल प्रबंधन के प्रथागत कर्तव्यों, अधिकारों और जिम्मेदारियों की समझ हो। आज कल छुर-पोन की नियुक्ति बारी बारी से होती है। छुर-पोन के चयन की प्रणाली प्रत्येक गाँव में भिन्न होती है, लेकिन साबु में यह दिन शुभ समारोहों और प्रार्थनाओं के रूप में माना जाता है। एक शुभ तिथि के लिए आदरणीय लामाओं से परामर्श कर एक साम्प्रदायिक बैठक आयोजित की जाती है। यह किसी अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम से कम नहीं होता और यहाँ के स्थानीय लोग ‘‘सा -फाक’’ आयोजित करते है जिसमें छुर-पोन के चयन का उत्सव मनाते हैं। जल एक महत्वपूर्ण संसाधन होने के कारण, चारों तरफ़ बहुत उत्साह होता है और प्रत्येक परिवार का कम से कम एक सदस्य सक्षम नेता की नियुक्ति सुनिश्चत करने के लिए वहाँ उपस्थित रहता है। कृषि कार्य की शुभ शुरुआत को चिन्हित करने और नव निर्वाचित छुर-पोन को उसके कार्य के लिए आशीर्वाद देने के लिए बौद्ध भिक्षुओं द्वारा दो प्रमुख बौद्ध प्रार्थनायें “टाशी चेकपा" और “नांग्सा नांग्गेय” का पाठ किया जाता है। धार्मिक समारोह विशेष रूप से नेता के सही चयन के लिए महतवपूर्ण है, जो नैतिक रूप से सभी नियमों और विनियमों का पालन करे ताकि कृषक समुदायों के बीच समानता और सद्भाव सुनिश्चित किया जा सके। कृषि सत्र के दौरान देवताओं का आध्यात्मिक समर्थन प्राप्त करने के लिए साम्प्रदायिक प्रार्थना और पवित्र तांत्रिक आस्था जैसे “तोरमा’’(जौ के आटे के पुतले) देवताओं को अर्पित किए जाते हैं। पारम्परिक तौर से उच्च ऊंचाई वाले समुदायों की कृषि प्रणाली आत्म निर्भर होती है और स्थानीय देवताओं के आध्यात्मिक आशीर्वाद के लिए आह्वान करने और प्रकृति के साथ लोगों के संबंधों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए धार्मिक समारोह किए जाते हैं। ‘‘कार्य काफ़ी कठोर व चुनौतिपूर्ण है - छुर-पोन को सुबह पाँच बजे से रात ग्यारह बजे तक जलाशय की निगरानी करनी होती है। इसलिए छुर-पोन का कार्य अधिकतर पुरुष सदस्यों को दिया जाता है", त्सेरिंग डोरजय (४६) जो की कुछ सालों पहले साबु के छुर-पोन थे बताते है कि, “पहले हमारे यहाँ दो छुर-पोन हुआ करते थे लेकिन अब चार हैं क्यूँकि अब यहाँ कई कृषि क्षेत्र है और हमें सभी क्षेत्रों में समान वितरण सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। काम अधिक मुश्किल हो गया है” उन्होंने निष्कर्ष में बताया।

लद्दाख में खेती का मौसम छह महीने तक सीमित होता हैं और किसान हिमनदों के पिघले हुए पानी (गंग-चू) पर निर्भर रहते हैं। सभी लद्दाखी गाँवो में एक सामुदायिक तालाब होता है जिसे “ज़िंग” कहते हैं, जँहा हिमनद का पिघला हुआ पानी सिंचाई के लिए संग्रह किया जाता है । ज़िंग नहरों से जुड़े होते हैं जिन्हें ‘‘यूरा’’ कहा जाता है जो की सभी कृषि क्षेत्रों में जल आपूर्ति करते है। जल का वितरण फसल की ज़रूरत के हिसाब से किया जाता है। चूँकि भोजन और अनाज की फसलें अधिक पानी की खपत करती है, इसलिए जल पहले गेंहू के खेतों में दिया जाता है, उसके बाद हरी मटर और जौ के खेतों में और अंततः चारे की फसलों को जो अधिक लचकदार होती है। एक छुर-पोन जल वितरण, सिंचाई की बारी, ज़िंग, नहरों की देखरेख, जल विवादों को हल करने और बिना किसी वक्तिगत पक्षपात के सभी परिवारों के बीच समान जल वितरण सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। साबु गाँव के छुर-पोन का पद इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे पानी जैसा संसाधन सामुदायिक रूप से ग्रामीणों द्वारा स्वयं शासित हो सकते हैं और अलग-अलग नियमों व विनियमों सख़्ती से पालन किया जा सकता है। निष्पक्षता, समानता, आपसी सहयोग और मेलजोल जैसे नैतिक मूल्य छुर-पोन की व्यवस्था को सक्षम बनाते है।

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फोटो साभार: दवा डोलमा, लेह

हालाँकि, छुर-पोन की परम्परा में अन्य वैकल्पिक आजीविका साधन जैसे पर्यटन आदि आ जाने से, व युवा पीढ़ी को स्थानीय कृषि के बारे में अधिक ज्ञान व अनुभव ना होने के कारण से काफ़ी गिरावट देखी गयी है, मोहम्मद अकबर, एक ५२ वर्षीय - साबु गाँव के पुराने छुर-पोन, इस सुंदर परम्परा के विलुप्त होने पर चिंता प्रकट करते हुए बोले “यह काफ़ी संशयपूर्ण है की आज कल के युवा इस परम्परा को बनाए रखेंगे और खेती करेंगे। आने वाले समय में छुर-पोन की परम्परा के विलुप्त हो जाने से काफ़ी भारी नुक़सान होगा।” छुर-पोन परम्परा के ना होने से साबु और अन्य गाँवो के सारी कृषि पद्धति नष्ट हो जाएगी। यह यहाँ के लोगों के जीवन व जीविका का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो सामूहिक रूप से इनकी पहचान बनाता है।

लेखक के बारे में

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दवा डोल्मा

दवा डोल्मा लेह में एक स्वतंत्र पत्रकार है। वह एक जलवायु उत्साही है और संस्कृति, प्रकृति और अपनी यात्राओं के बारे में लिखना पसंद करती हैं । वह अपने दोस्तों के साथ "शत्सा" नामक एक स्वैच्छिक पहल के माध्यम से लद्दाख में बच्चों के बीच पढ़ने के प्रेम का प्रसार कर रही है। उन्हें शत्सा को समय देना काफ़ी पसंद है और वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर इसे बेहतर बनाने की कल्पना करती है।

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