स्पीती घाटी की खेती-बाड़ी के तरीके
ने योतना छुक्पो सम, नोर योतना मक
जिनके पास जौ है वो अमीर है, पैसेवाले नहीं
- स्पिति घाटी की लोकोक्ति (अज्ञात)
बचपन से ही मुझे यह जानने की बहुत उत्सुकता थी कि स्पिति घाटी में खेती-बाड़ी कैसे की जाती है - यहाँ पर हम कौनसी पारम्परिक फसलें उगाते हैं और एक ठंडे रेगिस्तान में उनकी देखभाल कैसे करते हैं? स्पिति में रहने वाले दूसरे युवाओं की तरह मैं भी छुट्टियों में फसल की कटाई के समय मेरे परिवार की मदद किया करता था, परन्तु मैंने कभी भी पू्रे एक फसल चक्र में खेत में काम नहीं किया था। पिछले साल, पैन्डेमिक के कारण जब मैं घर वापस आया तो मुझे एहसास हुआ कि मैं खेती को नज़दीकी से देख भी सकता हूँ और सीख भी सकता हूँ। मैंने अपने परिवार के साथ मिलकर बहुत कुछ किया जैसे - बरफ़ से ढके खेत में राख छिड़कना जिससे बरफ पिघल जाए और वह जोतने के लिए तैयार हो जाए, सूखी पड़ी नहरों को साफ करना, जुताई में मदद करना, हरे मटरों को पौधों से तोड़ना, बिक्री के लिये बोरे तैयार करना, घास की कटाई करना, खेत की ज़मीन को समतल बनाना आदि। मैं स्पीति घाटी में कृषि के इतिहास के बारे में भी जानना चाहता था और मेरे परिवार के बुजुर्गों ने मुझे कुछ दिलचस्प बातें सुनाई।
फोटो साभार: लोबज़ंग तांदुप
बरसों पहले यहाँ के लोग काले मटर और जौ उगाते थे। वे जौ से या तो साम्पा (आटा) बनाते थे या अरक (पारम्पिक मदिरा)। वे इस जौ और मटर का चांगथांग के व्यापारियों के साथ लेनदेन भी करते थे, जिसके बदले में उन्हें लेना (पश्मीना) और खुल्लु (याक का ऊन) मिलता था । पर 1960 से घाटी में बदलाव आने लगे। लोग यहाँ नकदी फसलों की खेती करने लगे जैसे कि हरे मटर और आलू। यह इसलिये हुआ क्योंकि बेहतर रास्तों के कारण घाटी में बाहर का व्यवसाय बढ़ गया।अब जौ और काला मटर बहुत कम मात्रा में केवल अपनी आवश्यकताओं के लिये ही उगाया जाता है ।
फोटो साभार: लोबज़ंग तांदुप
फोटो साभार: लोबज़ं ग तांदुप
स्पिती घाटी में खेती केवल 5-6 महीनों के लिए ही की जाती है। यह समय सभी किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। यद्यपि बोने का काम अप्रैल के महीने में शुरु होता है, पर उससे बहुत पहले से ही तैयारियाँ शुरु हो जाती हैं। शीत काल में बीजों को या तो खरीदा जाता है या फिर तैयार कर लिया जाता है। अप्रैल के मध्य में जब बरफ पिघलना शुरु होती है तो किसान खेत को जोतना और बीजों को बोना शुरु करते हैं। इस काम के लिये वे अपने श्रेष्ठ संसाधनो का उपयोग करते हैं जैसे की सबसे अच्छे याक या फिर 'ड्ज़ो' का जोड़ा और हाथों से बीज बोते हैं। आजकल लोग ट्रैक्टर, जोतने की मशीन या फिर टिलर का भी उपयोग करते हैं। खेत जोतना 2 लोगों का काम है पर कभी-कभी पूरा परिवार ही इस काम में लग जाता है। स्पिती घाटी में हमारा परिवार, रिश्तेदार व दोस्त हमारी सबसे बड़ी संपत्ति है। खेती करना एक सामुदायिक दायित्व है। सब लोग एक दूसरे की मदद करते हैं और कई बार तो एक खेत में 3-4 परिवार साथ मिलकर काम करते हैं।
यह परम्परा अनोखी है और उन किसानों की बहुत मदद करती है जिनके पास खुद के याक रखने की क्षमता नहीं है। वे खांग-छेन (ज़मीदार) परिवारों के साथ मिलकर खेतों में काम करते हैं, उनके याकों से अपना खेत जोतते हैं और बदले में उनके खेतों में मजदुरी करते हैं।याक खेती में बहुत मददगार सिद्ध होते हैं परन्तु हर किसी की उन्हें खरीदने की क्षमता नहीं होती। यह व्यवस्था प्रभावपूर्ण है क्योंकि यह खांग-छेन (बड़े ज़मीदार) और खांग-छुंग (छोटे किसान) के बीच एक रिश्ता कायम करते है जो दोनो के लिये लाभदायक है।
फोटो साभार: लोबज़ंग तांदुप
कभी-कभी खांग-छेन परिवार अपनी खेतों का छोटा सा हिस्सा खांग-छुंग परिवार को कुछ सालों के लिये किराए पर दे देते हैं। ऐसा ज़रुरी नहीं है कि खांग-छुंग परिवार इसके बदले उन्हें पैसे दे पर वे खांग-चेन परिवार के यहाँ इस मदद के बदले काम कर सकते हैं जैसे खेत जोतना या फिर कटाई के समय मदद करना। स्पिति में इस प्रकार के लेन-देन को 'शे' कहा जाता है।
लोग, वन्य जीव और प्रकृति का आपस में रिश्ता यहाँ केवल संसाधन के रूप में नहीं है। ये रिश्ता यहाँ की संस्कृति और रिति रिवाज़ो से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। जैसे कि स्पिति में रहने वाले अनेक परिवार अपने खेतों के नाम रखते है। यह नाम ना केवल खेतों को ढूंढ़ने में काम आते हैं बल्कि उनका एक विशेषता बयान करते हैं। छुप-झा (पानी का पक्षी) उन खेतों को कहा जाता है जिनका दमकला या क्रेन पक्षी जैसा आकार होता है, ति-रिक उन खेतों को कहा जाता है जो जौ से बनी एक स्थानीय मिठाई के समान दिखते हैं। दोर्ग्या-मा उन खेतों को कहा जाता है जहाँ बहुत से कंकड़-पत्थर हो। पानी की नहरों के नीचे वाले खेतों को युर-योक कहा जाता है और फे-काक (आधा) उन खेतों को कहा जाता है जो खांग-छुंग परिवार को खांग-छेन परिवार से पैतृक संपत्ति की भागिदारी के बाद मिले होते हैं।
ऐसे कई खेती-किसानी के गीत हैं जो यहाँ के लोग खेती करते हुए गुनगुनाते हैं। बल्कि किसान हर कदम से जुडी अनोखी धुन गुनगुनाते हैं। इन गीतों में खेती और मौसम से संबंधित बाते कही जाती है, और देवी-देवताओं की अराधनाएँ होती है जिससे कि फसल अच्छी हो। "ओम मनी पद्मे हुंग" - पवित्र बौद्ध स्तुति को भी खेत जोतते समय बार-बार दोहराया जाता है जो किसान की अपने याक और ड्ज़ो के प्रति आदर और कृतज्ञता दर्शाता हैं। "लासो-हो" का जाप खुशी के समय किया जाता है, विशेषकर उस समय जब जानवर थकान महसूस कर रहे हो, मौसम कठिन हो और खेत में उत्साह बढाने की आवश्यकता हो।
जोतने का काम खत्म होते ही किसान पहले अंकुर की प्रतीक्षा करते है, जिसके बाद सींचाई का काम शुरु होता है। इसे युर्मा कहा जाता है और ये बीज बोने के 40 दिनों के बाद शुरु होता है। यहाँ पानी बहुमूल्य है, और स्थनीय तरीके से इसका भाग बटवारा कीया जाता है जिसे 'छु-रे' कहा जाता है और जो सिर्फ गाँव की औरतें ही करती हैं। औरतों के एक समूह को इस बात की ज़िम्मेदारी दी जाती है कि वे एक कालचक्र में सही समय पर, बराबरी का पानी का बटवारा कर सके और सभी परिवारों को पहुँचाएँ। खांग-छेन परिवारों को सबसे ज़्यादा पानी मिलता है, उन्हें चु-रे का काम भी सबसे अधिक मिलता है। पानी का बटवारा कैसे हो, इस बात का निर्णय भी अधिकतर वे ही लेते है क्योंकि वे इन ज़मीनों के प्राचीन काल से मालिक रहे हैं एवं कर देते आएँ हैं। क्योंकि यहाँ वर्षा बहुत कम होती है, सींचाई बहुत ही कठिन काम है। सभी औरतें इस समय पानी देने में व्यस्त हो जाती हैं और यह कार्य 2 महीने तक चलता है।
ऑनलाइन स्रोतों से ली गई तस्वीर
निचले सतहो में बसे गाँवों में (काज़ा, ताबो, रंगरिक, पिन) मटर की फसल जून तक तैयार हो जाती है और उपर के गाँवों में (देमुल, कोमिक, लांग्ज़ा, हिकिम, किबेर, चिचम) अगस्त तक। इन फसलों को फिर दिल्ली और आसपास के प्रदेशों में भेजा और बेचा जाता है। स्पिती घाटी की उपज को सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि यहाँ के किसान नुकसान पहुँचाने वाले कीटनाशक, वीडिसाइड आदि का उपयोग नहीं करते। वे केवल प्राकृतिक खाद का प्रयोग करते हैं। स्पिती घाटी के मटर का स्वाद बहुत मीठा होता है और उसका कारण है यहाँ के लोगो का खेती करने का तरीका और उनकी कड़ी मेहनत। कठिन परिस्थितियों के बावजूद व सीमित संसाधन होते हुए भी वे हार नहीं मानते।
मटर और जौ उगाने का तरीका थोडा अलग है। हरा मटर यहाँ के लोगों के रोज़गार का प्रमुख साधन है पर उसे उगाने में किसान को ज़्यादा मेहनत लगती है और उसमें पानी भी अधिक लगता है। जौ यहाँ की पारम्परिक फसल है जिसे उगाना भी मटर से आसान है और यहाँ के मौसम के हिसाब से भी जौ कीटों और सूखे से बचने की प्रतिरोधी क्षमता भी बेहतर रखता है।जौ और काले मटर कि कटाई अगस्त-सितम्बर में हरे मटर की कटाई के बाद की जा सकती है। बाकी बचे घास को इकट्ठा कर मवेशियों को सर्दियों में खिलाया जाता है। ज़्यादातर स्पिती परिवार अपने खेतों के पास एक समतल ज़मीन रखते है जिसे उल-तक कहा जाता है जहाँ पर जौ (खु-युक) और घास को अल्ग-अलग किया जाता है, और आटा बनाया जाता है। अनाज को पारम्परिक गोदामों में रखा जाता है जिन्हें भांग कहते हैं।
खेती करना स्पिती घाटी के लोगो के लिए केवल रोज़गार का साधन नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। हमारी पारम्पराएँ, रिति-रिवाज़, स्थानीय आचार-विचार सभी कुछ किसानी से जुड़ी हैं। यहाँ कहे जाने वाली बहुत सी लोकुक्तियाँ (पेरा) भी इसी बात को दर्शाती हैं। मैं उनमें से कुछ बता रहा हूँ जो परिवार के बडे-बिज़ुर्गों को मैंने कहते हुए सुना है:
फोटो साभार: प्रसेनजीत यादव
न्यिमा डॉत ला माता, दोत्पा छुंग ला माता
"ना सूरज की तपन पर निर्भर रहो ना ही अपनी भूख पर"| यह जताता है कि व्यक्ति को हमेशा चुस्त, और चौकस रहना चाहिए जब वह खेत का काम कर रहा हो। जब किसान सुबह निकले तो हर तरह की परेशानी झेलने की क्षमता के साथ निकले क्योंकि किसी चीज़ का भी भरोसा नहीं कर सकते - ना सूरज की गर्माहट का ना ही अपनी भूख का। किसान को हर आपदा के लिए तैयार रहना पड़ता है ।
सोइ मे फुंग, न्याल फुंग
“नुकसान तुम्हारे खाने से नहीं, सोने से होगा” यह लोकोक्ति कड़ी मेहनत करने की सलाह देती है ।
लेय बेटना, से न्योंग
“तुम जितनी मेहनत करोगे, तुम्हारी उपज भी उतनी ही होगी”
ने योतना छुक्पो सम, नोर योतना मक
“जिनके पास जौ है वो अमीर है, पैसेवाले नहीं”| यह जताता है कि यहाँ के लोग खेती को कितना मान देते है।
मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ ,पर मैं कुछ सुझाव देना चाहता हूँ। ट्रांस हिमालय का प्राकृतिक पारितंत्र बहुत ही नाज़ुक है। हरे मटर जैसे नकदी फसल भविष्य के लिये ठीक नहीं है। हमें जौ और काले मटर जैसे फसलों के बारे में सोचना चाहिये जो यहाँ के पर्यावरण के अनुकूल हैं। हमें पूरे समुदाय के भविष्य के बारे में सोचना चाहिये, और ऐसी फसलें उगानी चहिये जो भरन-पोषण भी करे और प्रकृति को नुकसान भी ना पहुँचाए। सहकारी समितियों, स्थानीय प्रशासन को एक साथ मिलकर इस तरह से काम करना चाहिये कि किसान को अपनी उपज का सही दाम मिल सके। युवाओं को भी यह समझना ज़रुरी है कि आधुनिक मशीने और किसानी करने के तरीके अच्छे हैं पर हमें अपने पारम्परिक तरीकों को भी नहीं भूलना चाहिये जो बरसों से यहाँ के लोग करते आ रहे हैं।
लेखक के बारे में
लोबज़ंग तांदुप
लोबज़ंग तांदुप स्पिती घाटी के किबर गाँव से हैं। उन्होंने चंडीगढ के पंजाब विश्वविद्यालय से भौतिकी व इलेन्ट्रोनिक्स से बैचेलर किया है। वे इस समय एन्ट्रेन्स परिक्षा के लिये पढाई कर रहे हैं। उन्हें फुटबॉल व क्रिकेट खेलना बहुत पसंद है एवं ट्रेकिंग और स्नो स्कीइंग भी बहुत भाता है।