स्पीति घाटी की पहली बस
हिमालय के सबसे ऊंचे पहाड़ों में स्थित है, स्पीति घाटी और स्पीति घाटी का पहला गाँव है, लोसर। लोसर पहुंचने के लिए दो ऊंचे पहाड़ी दर्रे पार करने पड़ते हैं। सर्दियों में भारी बर्फबारी की वजह से स्पीति पहुंचना नामुमकिन होता है। बर्फ की वजह से लोसर और स्पीति घाटी के अधिकांश लोग, सर्दियां अपने-अपने गाँव में ही बिताते हैं। सर्दियों में कुछ खास काम भी नहीं होता है। पर उस साल की बात कुछ और ही थी। सभी लोग गर्मियों में स्पीति आने वाली बस सेवा को लेकर बहुत उत्साहित थे। तब तक कुछ ही लोग स्पीति से बाहर जाते थे। अधिकतर यात्राएं घोड़ों पर होती थी, और तब तक शायद ही किसी ने मोटर गाड़ी देखी थी।
गाँव में सभी लोग सिर्फ बस की चर्चा कर रहे थे। कैसे यह बस कुछ ही घंटों में पहाड़ फाँद कर स्पीति पहुंच जाएगी, वो भी 42 सवारियों को बोझा ढोकर! ये कौन सा जानवर है जो इतना वजन ढोकर भी इतना तेज दौड़ सकता है? सारे स्पीति, और खास कर लोसर में, सभी लोग इसी चर्चा में उलझे थे। कोई कहता कि ये 6 पैर वाला जानवर है जो किसी भी घोड़े से तीन गुणा तेज दौड़ सकता है, तो कोई कहता कि इस में 10 खच्चरों की ताकत है। और इसकी आंखें रात को पहाड़ी रास्तों को ऐसी चमका देती है मानो जैसे चांदनी रात हो। आने वाली पहली बस का ख्याल सब के दिमाग में दौड़ रहा था।
लंबी सर्दी के बाद आखिरकार सूरज ने दिशा बदली और मौसम गर्म होने लगा। बर्फ पिघलने में कुछ हफ्ते लग गए। फिर एक दिन खबर आई कि स्पीति की पहली बस तीन दिन बाद शुरू होगी। स्पीति की पहली बस, सब से पहले लोसर पहुंचने वाली थी और बस का स्वागत करने का जिम्मा लोसर वालों को मिला था। सारा गाँव स्वागत सभा के आयोजन में शामिल हो गया था। गाँव के मर्द गाँव का गेट सजाने में व्यस्त हो गए। आम तौर पर गाँव के गेट को तभी सजाया जाता था जब कोई पूज्य रिनपोछे गाँव में पधारते थे। महिलाओं ने खेत के काम की छुट्टी करके सारे गाँव के लिए भोजन तैयार करने का जिम्मा ले लिया था। स्कूल की भी छुट्टी कर दी गई थी, ताकि बच्चे भी हिस्सा ले सके।
हाथ में आशी लेकर सारा गाँव पहली बस का स्वागत करने पहुंचा था। बस नज़र में आने से पहले बस की आवाज़ सब ने सुनी। बस की घुर्राहट सुन कर सारे गाँव वालों की खुशी से चीख निकल पड़ी। और फिर, बस, नजर में आई। बस, कच्चे रास्ते पर उछल-उछल के चल रही थी। कोई अपनी जगह से नहीं हिला, मानो जैसे सभी के सिर पर कोई भूत बैठ गया हो। सजे हुए गेट को पार करके बस रुक गई। बस का निरीक्षण करने के लिए सभी बड़े लोग सतर्क होकर आगे बढ़े। किसी ने बस को छुआ, तो कोई बस के शीशे और दरवाजे को देख रहा था। पर सभी बहुत पास जाने से डर रहे थे - कहीं बस भी किसी गुस्सैल घोड़े की तरह लात न मार दे। ड्राइवर और कंडक्टर का स्वागत तो किसी फिल्म के हीरो की तरह किया जा रहा था।
कुछ देर में, जब सब ने बस को जी भर के देख लिया, तब सभी ने खाने के पंडाल की ओर रुख किया। जैसे ही भीड़ निकल गई, ईवी निंग गेमो अपने घर से बाहर आ गई। ये वृद्ध महिला हाथ में एक गठरी घास लेकर बस की तरफ चल पड़ी। बस के सामने पहुच कर ईवी ने घास को बस के सामने बिछा दिया। फिर बड़े प्यार से बस को निहारते हुए बोली – “तुम बहुत थक गये होगे। इन गाँव वालों को कोई तहज़ीब ही नहीं है। सबने शोर मचाया और फिर खाना खाने निकल गए। किसी को तुम्हारी फिक्र ही नहीं! पर तुम चिंता मत करो, मैं हूं ना तुम्हारे साथ। तुम खाओ। जितनी घास खानी है तुम खाओ। मैं और ले आउंगी।”
ईवी निंग गेमो ने बस को प्यार से थपथपाया और बस के घास खाने की राह तकती खड़ी रही।
स्पीति घाटी हिमालय का एक उच्च ऊंचाई वाला क्षेत्र है, जो उत्तरी भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में स्थित है। यह भारत के सबसे सुदूर इलाकों में से एक है।
रिनपोछे तिब्बती बौद्ध धर्म में एक सम्मानित और उच्च प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षक या गुरु को संबोधित करने वाली एक उपाधि है।
आशी (जिसे खटक भी कहा जाता है) हिमालय क्षेत्र में सम्मान के प्रतीक के रूप में दिया जाने वाला एक सफेद दुपट्टा है। यह आमतौर पर लामाओं और अति विशिष्ट अतिथियों को अर्पित किया जाता है।
ईवी एक उपाधि है जिसका प्रयोग स्पीति में हर कोई अपनी दादी या बुजुर्ग महिला के लिए करता है।