चंद्रा नदी का उद्गम
काँगड़ा के गद्दी हर साल गर्मियों में लाहौल आते हैं। पीढ़ियों से गद्दी चरवाहे घुमंतू जीवन बसर करते आ रहे हैं। लाहौल के ऊंचे पहाड़ी चरागाहों में वो गर्मियों के दिन बिताते हैं। देखने वालों को गद्दी चरवाहों का जीवन बहुत सुहाना लग सकता है - बर्फीले पहाड़ों की सुनहरी धूप में दिन बिताना किसे अच्छा नहीं लगेगा? पर इनके जानवर इन्हे आराम से बैठने दें तब ना! सुबह होती नहीं कि इनकी भेड़-बकरियां मिमिया - मिमिया कर नाक में दम कर देती हैं। इन भेड़-बकरियों को तो बस अपनी भूख की पड़ी रहती है और इस तरह इन्हे रोज़ एक नई जगह जाना पड़ता है जहां हरी - हरी घास हो। बेचारा गद्दी करे भी तो क्या करे? उसे तो बस अपनी भेड़ -बकरियों के पीछे दौड़ते रहना पड़ता है। उसपर यह डर भी कि क्या पता कब कोई भेड़िया आकर उसकी भेड़ उठाले। गर्मियों के दिन बड़े लंबे होते हैं। दिन भर की मेहनत के बाद गद्दी चरवाहे को शाम को जाकर कहीं सांस लेने की फुर्सत मिलती है।
नूपा लाल को अपने चाचा के साथ चलते हुए कुछ ही साल हुए थे। चाचा अब बुजुर्ग हो चले थे इसलिए नूपा लाल अपने चाचा और उनकी भेड़-बकरियों के साथ जाता था। उनका डोका लाहौल के सबसे दूरतम घाटी में था, जो कि इतनी दूर था कि अधिकतर गद्दी वहाँ तक कभी पहुंचे भी नहीं थे। ये जगह अपनी एक झील के लिए मशहूर थी। कहते थे इस झील का पानी नीलम सा था!
नूपा लाल दिन भर भेड़-बकरियों के साथ रहता था और उसके चाचा खाना बनाते थे। शाम को भेड़-बकरियों को बाड़े में बंद करके नूपा लाला अपनी थाच में लौटता, जहां से झील साफ दिखती थी। वहां बैठ कर वो अपनी बांसुरी निकालता और उसे बजाया करता। उसके चाचा अपनी चिलम सुलगाकर उसके कश भरते। नूपा लाला की बांसुरी सुनने वाला वहां कोई नहीं होता था, तब भी वो दिल से बांसुरी बजाता था क्योंकि उसे बांसुरी बजाना बेहद पसंद था। नूपा लाल शाम होने तक बांसुरी बजाता था और फिर अंधेरा होते-होते खाना खाकर थाच में सो जाता था। लगभग हर दिन उसका ऐसे ही बीतता था, लेकिन वो एक दिन अलग था। वो पूर्णिमा की रात थी और नूपा लाल ने जब अपनी बांसुरी बजाकर एक तरफ रखी तो ऐसा लगा जैसे किसी ने उसपर जादू-टोना कर दिया हो। उसकी नजर झील पर थी जहां चाँद की परछाई झील के नीले पानी में दिख रही थी। अचानक से वो खड़ा हुआ और चीख पड़ा, "अरे बचाओ कोई... देखो देखो... चाँद डूब रहा है... बचाओ!" ऐसा चीखते हुए वो झील की तरफ दौड़ पड़ा। जब तक उसके बुजुर्ग चाचा को पता चलता कि क्या हुआ है, नूपा लाल झील के ठंडे पानी में कूद पड़ा। जब तक चाचा झील के किनारे तक पहुंचे नूपा लाल और चाँद, दोनों ही झील के ठंडे पानी में समा गए थे।
क्या उस रात चाँद सचमुच झील में डूब गया था? ये तो कहना मुश्किल होगा। शायद नहीं। पर गद्दी बिल्कुल मानते हैं कि उस रात चाँद सच में डूबा था और जो पानी झील से बाहर छलक कर निकला उससे चंद्रा नदी का उद्गम हुआ। और वो झील - चंद्रताल - वो आज भी उतनी ही सुंदर है। खास कर पूर्णिमा की रातों में। अगर कभी पूर्णिमा की रात को चंद्रताल पहुंचने का नसीब हो, तो ध्यान से सुनना, कभी-कभी नूपा लाल की बांसुरी पूर्णिमा की रातों में झील किनारे सुनाई देती है!
काँगड़ा वह हिमालयी क्षेत्र है जहां गद्दी चरवाहे रहते हैं। यह हिमाचल प्रदेश राज्य का एक जिला भी है।
गद्दी चरवाहे एक पशुपालक जनजाति है जो भेड़ और बकरी पालते हैं। सबसे मजबूत पुरुषों और महिलाओं में से कुछ, गद्दी, अपने पशुओं के साथ 10-11 महीनों तक हिमालय और उसके निचले मैदानों में एक लंबी दूरी तय करते हैं।
लाहौल भी एक सुदूर हिमालयी घाटी है जहां रोहतांग दर्रे को पार करने के बाद पहुंचा जा सकता है। लाहौल घाटी स्पीति घाटी के निकट है और लाहौल-स्पीति मिलकर हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है।
डोका एक विशिष्ट स्थान होता है जहाँ गद्दी चरवाहे डेरा डालते हैं।
थाच पत्थर की झोपड़ी होती है जिसके अंदर गद्दी चरवाहे रहते हैं जब वे डेरा डालते हैं। ये पत्थर की झोपड़ियां पुरानी होती हैं और पत्थरों को एक साथ इकट्ठा करके खूबसूरती से बनाई जाती है। यह चरवाहों को खराब मौसम से भी बचाती हैं।
चंद्रा नदी लाहौल और स्पीति जिले में मुख्य हिमालय श्रृंखला के आधार पर पड़ी हुई बर्फ से निकलती है। इसके उद्गम स्थल पर सुंदर चंद्रताल का निर्माण हुआ है।
चंद्रताल एक खूबसूरत ऊंचाई पर स्थित झील है जो अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती है। जल पक्षियों को देखने के लिए भी यह एक बहुत ही खूबसूरत जगह है। यह पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल है।